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| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तिस्व एवं कतृत्व जिस प्रकार चक्र चलाने से शत्रुओं का नाश होता है परन्तु यदि चक्र चलाना न पाता हो और अकुशल व्यक्ति चक्र को असावधानीपूर्वक चलाता है तो अपना ही मस्तक काट लेता है. इसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान का नयों के समहरूप नयचक्र है, जो अतितीक्ष्ण धारवाला है, जिसका चलाना कठिन है, उसे मिथ्या अभिप्रायपूर्वक चलाने वाला पुरुष कर्मरूप शत्रुओं का नाश पाता है अतः नयों के कथनों में यथार्थ अभिप्राय ग्रहण करना तथा उनके प्रयोग में सावधानी रखना आवश्यक है। नय चक्र संचालन में कुशल गुरु को शरण प्रावश्यक है :
पागम में कहा है कि जितने वचन है उतने ही नय हैं अर्थात् नयों के अनेक भेद हैं। उनके भेद प्रभेदों को सुनकर विज्जनों को भी बुद्धि श्राश्चर्यचकित होती है। प्रवचनसार की सत्वदीपिकाठोका मे ही प्राचार्य अमृतचन्द्र ने एक स्थल पर संतालीस' प्रकार के नयों का शव एवं स्पष्टीकरण किया है। अहिता तथा हिशा के वरूप निदर्शन में प्रक दृष्टियों से कथन किये है। इन सभी कथनों के विस्तार तथा विविध भंगों प्रकारों को सुनकर सम्पमतिजनों को भव पंदा हो जाता है। जिस प्रकार गहन वन में कोई पथिक मार्ग भूल जाता है तो उसका उस वन से सुरक्षित पार होना कठिन हो जाता है। उस समय कोई गहनबन के समस्त मार्गों का कुशल जानकार ही उसे बचा सकता है, इसी प्रकार विविध भंग युक्त नय समह रूप गहनवन में सन्मार्ग भूले हुए पुरुष को अथवा तत्त्वज्ञान से रहित पुरुष को नयचक्र के चलाने में कुशल अथवा नयों के मर्म के कमाल जानकार श्री गुरु ही शरणभत होते हैं। उनके पिवा अन्य कोई सानार्ग का प्रदर्शन नहीं कर सकता। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राचार्य अमतचन्द्र
१. प्रत्यः निणिरधारं दुरासदं गिनवरस्य नयनकम् ।
लण्यात धार्य मारा मन भ.दिति दुविदग्धानाम् ।। पु सि. पद्य ५६. जावदिया वय-वहा तावदिया व होसि ग्णय वादा । जावदिया णयवादा ताबदिया व होति परसमया ।।
बयला खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, सूप १, गाधा नं ६७ पृ. १. प्रवचनसार तत्त्वदीपिका टीका, चरणानुयोग चूलिका के अंत में परिगिण्ट, पृ. ४०२.
पु. सि. पद्य ४३ से ५७ तक । ५. इति विविधभंग गहने सुदुस्तरे मार्ग मून टीनाम् ।।
गुरुवो भवति शरणं प्रत्रुनयन संचाराः ॥" पु. सि. पद्य ५८,