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कृतियाँ ।
हा है. इसलिए भी ग्रंथ का उक्त तत्वार्थसार नाम उचित है । साथ ही तत्त्वार्थ विषयक प्रमुख टीकाओं तथा रचनाओं का भी सार इस ग्रंथ में समाहित किया गया है । अतः सर्व प्रकार से ग्रंथ का उक्त नाम सार्थक तथा उचित है। कर्तृत्व :
("पुरुषार्थसिद्ध युपाय" तथा अन्य टीकाओं की तरह तत्वार्थमार के अंत में परमार्थ दृष्टि से अमृतचन्द्र ने ग्रंथ के कर्तृत्त्र का विकल्प दूर करते हा लिखा है कि अक्षर पदों के कर्ता हैं, पद समूह वाक्यों के कर्ता हैं तथा वाश्य इस शास्त्र के कर्ता हैं। इस प्रकार अमृतचन्द्राचार्य इसके कर्ता नहीं हैं । उपर्युक्त शैली से उक्त वृत्ति स्वतः अमृतचन्द्रप्रणीत प्रमाणित होती है।
दुसरे अन्य टीकाकारों तथा लेखकों ने भी उक्त कृति को अमृतचन्द्र की ही उनिमावि किया है। उन कृति में भी शंग में उपसंहारात्मक अध्याय जोड़कर निश्चय-व्यवहार कथन शैली का प्रदर्शन किया है तथा अपनी अध्यात्मली की भी छाप छोड़ रखी है । इस तरह उक्त ग्रंथ भी प्राचार्य अमृतचन्द्र की ही निविवाद रचना प्रमाणित है। प्रामाणिकता :
"तत्त्वार्थमार" तत्वार्थसूत्र की अनुगामिनी टीका होने से तथा राजवातिक, श्लोकवातिक, सर्वार्थ सिद्धि, पंचसंग्रह आदि महान् रचनाओं से परिपुष्ट होने के कारण तत्वज्ञानविषयक सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथों में ही परिगणित है । प्राचार्य अमृतचन्द्र के असाधारण व्यक्तित्व मे निमित होकर मूलसून साहित्य की भांति प्रमागता को है। जिस तरह मूल्य प्रणेतानों में प्राचार्य कुन्दकुन्द स्वामी सर्वोपरि स्थान पर सुशोभित है, उसी तरह टीकाकारों तथा स्वतंत्र ग्रंथकारों में प्राचार्य अमृतचन्द्र अग्रणी मान्य प्राचार्य है, अतः उनकी उक्त रचना भी तत्त्वार्थ विषयक वाङमय में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मान्य कृति है । विषयवस्तु :
तित्वार्थसार में निम्न पाठ अधिकार हैं - सप्ततत्वपीठिका, जीवतत्त्ववर्गन, जोत्दवर्णन, मानवतत्त्व, बंधास्त्र, संवरतत्त्व, निर्जरातत्व या मोक्षतत्व वर्णन अधिकार । अंत में उपसंहारात्मक २१ पद्य हैं।
प्रथमाधिकार में, प्रारम्भ में ही ग्रंथकार ने उक्त अंथ को मोक्षमार्ग का प्रकाश करने वाला दीपक लिखा है । उसमें समस्त निरूपण युक्ति और