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________________ Gi I | दार्शनिक विचार ! | ४३५ लगता है । यही अज्ञानी की व्यवहार को सत्यार्थ मानने सम्बन्धी जो उक्त स्पष्टीकरण से निराकृत हो जाती है । भूल है, व्यवहार को परमार्थ मानने वालों को शुद्धात्मा अथवा समयसार का अनुभव नहीं हो सकता । भव्य तथा अज्ञानी का व्यवहार नय का श्राधय कैसा होता है : भव्य प्रथवा अज्ञानी जनों के मी व्यवहार नये का प्राश्रय देखा जाता है। वे तप एवं शील को धारण करने हैं, तीन गुप्ति, पांच समितियों तथा पांच महाव्रतों रूप व्यवहार चारित्र का पालन करते हैं । उक्त सभी करते हुए भी निश्चय चान्त्रि के कारणरूप ज्ञान तथा श्रद्धान से शून्य होने के कारण वे चारित्र रहित है। अज्ञानी तथा मिथ्यादृष्टि भी हैं । श्राचार्य अमृत के पष्ट दों में कहा है कि भव्य जीव के शुद्धात्मा का ज्ञान नहीं होता है। मोक्ष की श्रद्धा से ज्ञानतन्व की भी श्रद्धा होती है पत ज्ञान की श्रद्धा बिना ११ अंगज्ञान रूपल (वास्त्रों) को पढ़ता हुआ भी. शास्त्र पठण का गुण श्रात्मज्ञान न होने से वह अज्ञानी ही है । उसके प्रारम ज्ञान तथा प्रात्मश्रद्धान नहीं होता । इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि आत्मज्ञान तथा श्रद्धान होते ही ज्ञानी संज्ञा प्राप्त होती है भर ही उसके निवरूप व्रत चारिश्रादि न हों ।' ग्रभव्य जीव हमेशा कर्मफलता रूप वस्तु की श्रद्धा करता है परन्तु नित्यज्ञान चेतनामात्र वस्तु को श्रद्धा नहीं करता क्योंकि वह सदा ही दविज्ञान के अयोग्य होता है। इसलिए वह कर्मों से मुक्ति के विमितरूप ज्ञानमात्र, भूतार्थ ( निश्चय) धर्म की श्रवा ૧ : 6. माणवक एव हि या भगतसिहत्य | व्यवहारएवहिता निश्चयतां त्यतियशस्य ॥ पु. सि. पच's व्यवहारमेव परमार्थं वृद्धा यन्तं तं समयसारमेव नरातयन्ते । (रामयसार ग्रा. ४१४ की टीका) कथमभवन प्यायित व्यवहारतवः ति चेत् ? शोलतः परित्रगुप्ति पंरानितिरिकलितमहिम दिपत्रा व्यवहारवान् अभव्यांऽपि विश्वपचारिवहेतु कुनिश्चारिवज्ञाननिष्टप भूतवानश्रन्यत्शत् । (AT. BOT. ROB.) मोक्ष हि न तावदभव्यः श्रद्धते शुद्धज्ञानमात्मज्ञानशून्यत्वात् ततो ज्ञाननिवासी श्रद्धते । ज्ञानमश्रद्धानञ्चाचाराचं कादशांगंश्रुतमधीयानोऽनि श्रुताध्ययनगुणाभा मात्र ज्ञानी स्वात् । सोऽशानीति प्रतिनियतः । ततञ्च ज्ञानश्रद्धानाभावात् समयसार गाथा २७४ को आत्मख्याति टीका । 14 --
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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