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। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व नार्थ (म्लेकछ ! से यदि कोई ब्राह्मण 'स्वस्ति' शब्द कहता है तो वह
माद को धन्यवान साधको न मानने के कारण कछ भी नहीं समझ पाता है और उस ब्राह्मण की और में ही भांति टकटकी चगाकर, श्रां माड़कर देखता ही रहता है किन्तु जब ब्राह्मण तथा मनेन्छ दोनों की भाषा जानने वाला पुरुष ममझाता है कि "स्वप्नि" का अर्थ है ''तेरा अविनाशी कन्याण हो", तब तत्काल ही उत्पन्न होने वाले आनंदमय प्रश्नों ग नेत्र भर कर बह मलेच्छ "स्वस्नि' पद के अर्थ को समझा जाता है, एमी प्रकार व्यवहारी जनों को प्रात्मा" शरद कहे जाने पर अात्मा माब्द के का नान न होने से कछ भी न समझकर ये मेढ़ की मति टकटकी लगाकर, अगि फाड़कर देखते रहते हैं परन्तु जब बहार एवं परमायरूप मार्ग पर सम्यग्जानरूपी रथ को चलाने वाले सारथी की भांति अन्य कोई आचार्य "जात्मा" शब्द का यह अर्थ बतलाते हैं कि जो दर्शन ज्ञान तथा चारित्र को प्राय हो, वह झाल्ना है, नव नत्काल ही उत्पन्न होने वाले अानंदातिरेव गे जिसके हृदय में सुन्दर तथा मनोहर बोधतरंगें ज्ञानतरंगे उदलने लगती है ऐसा बह व्यवहारी जन उस "मात्मा" पदक अर्थ की समझ जाता है। यहां ऐसा समभाना साहिा कि जगत् (व्यवहारीगन) नो मननछ के स्थान पर होन से तथा व्यवहार नयच्छ भाषा के स्थान पर होने में न्यबहार को परमार्थ का प्रतिपादक कहा है । अतः स्पष्ट हे कि यद्यपि व्यवहार नय स्थापित करने योग्य है तथापि ब्राह्मण को म्लेच्छ नहीं हो जाना चाहिए. इस बचन से व्यवहार नय अनुसरण करने योग्य नहीं है। व्यवहार (प्रभूतार्थ को परमार्थ मानना भूल है :
यद्यपि म्यवहार के द्वारा निश्चय (परभार्थी का प्रतिपादन किया जाता है अतः वह निश्चय स्वरूप को समझाने का साधनमात्र है, अन्य काछ भी नहीं ।' शाधन को साध्य मानना भी भूल ही है। टीकाकार अमृतचन्द्र ने स्वयं ही एक स्थल पर इस विषय कारपष्टीकरण करते हए लिखा है कि जिस प्रकार बिलाव सिंह को समझने का एक साधन मात्र है परन्तु सिंह के स्वरूप से सर्वया अपरिचित पुन बिलाब को ही सिंहरूप मानने लाना है. उसी तरह यथार्थ में निश्चय के स्वरूप से सर्वथा अपरिचित पुरुष के लिए व्यवहार ही निश्चय स्वरूप सत्यार्थ या भूतार्य लगनं - ....... .--. ५. व्यवहांगगापि परमार्थमात्रमेय प्रतिपाद्यते, न किंचिदप्यतिरिक्तम् ।
- समयसार गा. १० की आत्मस्वाति टीका