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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
नहीं करता तथा प्रभूतार्थ (व्यवहार) धर्म की श्रद्धा करता है जो कि भोग का निमित तथा शुभ कर्ममात्र रूप होता है । ऐसे अभूतार्थ धर्म की श्रद्धा प्रतीति रुचि और स्पर्शन से ऊपर के ग्रैवेयकों तक के भोग प्राप्त करता है परन्तु कर्मों से कदापि मुक्त नहीं होता। इसका एकमात्र कारण यही है कि उसके भूतार्थं धर्म के श्रद्धान का अभाव है ।" उपरोक्त समस्त दार्शनिक विचारों का आधार प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत समयसार की संबंधित गाथाएं हैं।
निश्चय व्यवहार का एक और लक्षण :
भी
प्राचार्य मृतचन्द्र निश्चय व्यवहार का भूतार्थ- प्रभूतार्थ स्वरूप स्पष्ट रूप से दिखा चुके हैं । अन्यत्र ने उनका एक और लक्षण प्रस्तुत करते हैं । वे निश्चय को आत्माश्रित अथवा स्वाश्रित तथा व्यवहार को पराश्रित करते हैं। उन्होंने किया है कि समस्त परयों के निमित्त से होने वाले अध्यवसान भाव हैं वे पराश्रित होने से त्यागने योग्य है । इससे यह भी फलित होता है कि जितने प्रकार के व्यवहार भाव हैं, वे सभी परार्थित हैं तथा पराश्रित होने के कारण ही जिनेन्द्रदेवों ने समस्त व्यवहार को तथा व्यवहारनय के विकल्पों को त्याज्य कहा है । सत्पुरुषों को एक शुद्धात्मा में ही स्थिरता करनी चाहिए। इस प्रकार उक्त द्वितीय लक्षण द्वारा भी निश्चय को उपादेय तथा व्यवहार को हेय कहा है । निश्चय व्यवहार की तृतीय परिभाषा :
शुद्धद्रव्य का निरूपण करने वाला निश्चय नय है तथा अशुद्धद्रव्य का निरूपण करने वाला व्यवहार नय है । शुद्धद्रव्य का अर्थ मात्र एक द्रव्य से है, उसमें अन्य द्रव्य निरपेक्ष है । अशुद्धद्रव्य से तात्पर्य एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का आरोपण है । उदाहरण के लिए राग परिणाम ही श्रात्मा का कर्म है । वही पुण्य तथा पाप रूप से दो प्रकार का है। आत्मा अपने राग परिणाम का कर्ता है. उसी को ग्रहण करता है तथा उसी का त्याग करता है, वह शुद्ध द्रव्य ( एकस्याश्रित) निरूपण स्वरूप निश्चयनय है तथा पुद्गल परिणाम प्रात्मा
समयसार ना. २३५ यात्मख्याति टीका
देखिये समय
गाथा नं० २७३ २७४ तथा २७५.
आम तो निश्चयः पराचितो व्यवहारः । समयमार गा. २७२ की टीका. ४, समयसार कल नं० १३३.
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२.
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