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________________ दार्शनिक विचार ] [ ४३७ का कर्म है. वहीं पुण्य पाप के भेद से दो प्रकार का है, आत्मा पुद्गल परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला तथा छोड़ने वाला है, यह अशुद्धद्रव्य (अन्य द्रव्याश्रित निरुपण स्वरूप व्यवहार नय है। शुद्ध तथा अशुद्ध अथवाएक तथा मिश्रितरूप से द्रब्य की प्रतीति की जाती है अतः एक द्रव्य ग्राहक को शुद्ध द्रव्य ग्राही निश्चय तथा मिश्रद्रव्य ग्राहक को अशुद्धद्रव्य ग्राही व्यवहार, ये दो नय कहे है किन्तु इन दोनों में निश्चय नय को ही साधकतम मानकर उपादेय निरूपित किया है और व्यवहार नय को अशुद्धत्व क' द्योतक होने के कारण साधकतम नहीं कहा है अतः साधकतम न होने में उसे हेय कहा है।' नयों को हेयता तथा उपादेयता का कारण : ___अशुद्धद्रव्य का ग्राहक अशुद्धनय व्यवहार नब) कहलाता है । अशुद्धनय को उपादेय मानने या उसका याश्रय लेन से अनुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होती है तथा शुद्धद्रव्यग्राही सुद्धनय (निश्चयनय) को उपादेय मानने तथा उसका प्राश्रय करने से शुद्ध प्रात्मा की उपलब्धि होती है । शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोक्षमार्ग एवं मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है, जिससे प्रात्मा का प्रयोजन सघता है तथा अशुद्धात्मा की उपलब्धि तो सदा से संसारी जीव को है ही, जिससे सदैव दुःखी रहा है और आत्मा का प्रयोजन नहीं साधा जा सका है अतः प्रयोजन के साधक निश्चय नय को उपादेय और प्रयोजन का साधक न होने से व्यवहार नय को हेय कहा गया है। व्यवहार नय में मूचित जीवों को प्राचार्य अमृतचन्द्र ने उन्मार्गगामी लिखा है। द लिखते हैं कि जो आत्मा शुद्ध द्रव्य के निरूपक निश्चय नय से निरपेक्ष होकर अशुद्धद्रव्य के निरूपक व्यवहार नय में मोह करता है तथा मानता है कि ये देहादि व धनादि पर द्रज्य मेरे हैं, मैं इनका हूँ मैं यह हूँ" इत्यादि ममत्व करता है, वह अशुद्धात्म परिणतिरूप उन्मार्ग का ही पथिक है, भले ही वह श्रम (मुनि) क्यों न हो । प्रस्तु, जो श्रात्मा निश्चय नय के द्वारा पर द्रश्य विषयक ममत्व को त्यागता है वह शुद्धामा की प्राप्ति तथा शुद्धात्मानुभूति रूप सन्मार्ग को प्राप्त करता है। यहाँ यदि कोई तर्क करे कि व्यवहार नय के कथन अनुसार लोक व्यवहार चलता है, जैसे लोक में १. प्रवचनसार, तत्वक्षेपिका गा. टीका १८९. वच ।मार, गा. 180-१६१ वी तत्वदीपिका टीका । 2
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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