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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुं त्व
१. वे आचार्य अमृतचन्द्र के अत्यधिक प्रशंसक थे । उन्होंने लिखा है कि अमृतचन्द्र मुनिराज समाज में निजामृत के समान थे । वे सातवेंआठवे गुणस्थान में झूलते थे । वे ऐसे कुशल स्याद्वादी वक्ता थे कि उनके समक्ष अन्य मत के वक्ता फीके पड़ते थे। ये श्राचार्य कुन्दकुन्द के अभिप्राय करे प्रगट करने वाले वक्ता थे । वे स्व पर भेदज्ञान के अभ्यास में प्रवीण थे तथा पर को त्याग कर अपने निजात्नस्वरूप में लोन रहते थे । "
२. क्षेपनंद ने पंचस्तिका बलर पद्यानुवाद में सर्वत्र
आचार्य अमृतचन्द्र के मौलिक भाषों को ही अभिव्यक्त किया है । उनकी समग्र कृति आचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व एवं विचारों से अनुप्राणित है ।
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३. के आचार्य अमृतचन्द्र की पंचास्तिकाय को समयव्याख्या टीका के रसिक थे । उन्होंने अपनी अनुभूति एवं उद्गारों को व्यक्त करते हुए लिखा है कि पंचास्तिकाय की टीका उपन्यास की भांति रोचक, गम्भीर शब्द एवं श्रयं वाली, समस्त प्रकार के अनुमान प्रमाण से संयुक्त, आत्मानुभव के अमृतरस से प्राप्लावित और कुन्दकुन्द के अनुभवरस की लहरयुक्त तरंगिणी थी। 3
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र का पं० हीरानंद पर प्रभाव स्पष्ट होता है ।
पं.
पचव, पं. चतुर्भुज, पं. भगवतीदास, पं. कुंवरपाल प्रावि पर प्रभाव ( १६३६ ईस्वी) - पं. रूपचन्द भी आगरा में पं. बनारसोदास के समकालीन विद्वान कवि थे । उनका समय १६३६ ईस्वी था। पं. रूपचन्द ने पं. बनारसीदास की आस्था को निर्मल एवं दृढ किया था । " उपरोक्त सभी विद्वान, आचार्य अमृतचन्द्र से प्रभावित तथा उनके साहित्य के रलिक थे। पं. रूपचन्द ने नाटक समयसार पर भाषा टीका भी लिखी है। अन्य विद्वान्, कभी समयसार नाटक का रहस्य सुनते थे, कभी शास्त्र सुनते थे तथा कभी तर्कपूर्ण तस्वचर्चा करने थे । उक्त सभी विद्वानों का
१. पंचास्तिवाय, समयसार पद्य क्रमांक ४१६ ४१७, ४२० तथा ४२१, पृष्ठ १६३
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२. बही पद्य क्रमांक १२ पृष्ठ ३ तथा पद्म १२ पृष्ठ १६५
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३. बही (हु०लि० प्रति पृष्ठ २ पद्य १३ तथा पृष्ठ ११० पद्य २८)
४. जैन सिद्धांत कोमा, भाग ३, पृष्ठ ४१६
५. समयसार नाटक ( विक्रम संवत् १६५६) पृष्ठ २१ ६. बड़ी, पृष्ठ ५३७
७. नही, पृष्ठ ५३७