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________________ १६२ ] [ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्त त्व दश्यते येन रूपेण ज्ञायते चर्यतेऽपि च । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ।।१०। यस्मै पश्यति जानाति स्वरूपाय चरत्यपि । दर्शनज्ञान चारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ।।११।। यस्मात्पश्यति जानाति स्वं स्वरूपाच्चरत्यपि । दर्शनलाननारियगारमेन तन्मयः !!१२।! यस्य पश्यति जानाति स्वरूपस्य चरस्यपि । दर्शन ज्ञान चारित्रयमात्मैव तन्मयः ॥१३॥ यस्मिन् पश्यति जानाति स्वस्वरूपे च रत्य पि । दर्शनज्ञानचारित्रश्यमात्मैव तन्मयः ।।१४।। इस प्रकार उपरोक्त ७ पदों में ''यद्" पुल्लिग सर्वनाम पद के एक वचन की सातों विभक्तियों के रूपों का प्रयोग किया गया है, साथ ही आत्मा को दर्शन-ज्ञान तथा चारित्र गुणरूप त्रयात्मक एवं अभेद सिद्ध किया गया है ।तत्पश्चात् पद्य क्रमांक १५ से लेकर २० तक में क्रमशः दर्शन ज्ञानचारित्ररूप क्रिया, गुण, पर्याय, प्रदेश, अरुलधुगुण तथा ध्रौव्यउत्पाद-व्यय इन पदों के परिवर्तन के साथ पूर्ववत् श्लोकों की पुनरावृत्तिः हो गई है। इस प्रकार उनकी व्याकरण सम्बन्धी कुशलता स्पष्ट प्रकट होती है। प्राचार्य प्रमतचन्द्र अध्यात्मरसिक के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र के बहुमुखी व्यक्तित्व का सर्वाधिक श्रेष्ठ पहलू उनका "अध्यात्मर सिक' होना है । "अध्यात्म" का व्युत्पत्यर्थ है "प्रात्मा की सीमा में रहना" | आचार्य अमृतचन्द्र का सम्पूर्ण जीवन एवं टोका साहित्य प्रात्मानुभूति का दर्पण है । समयसार की प्रात्मख्याति टीका के मंगलाचरण में टीकाकार ने "स्वानुभूत्या चकासते" पद द्वारा अनुभूति द्वारा प्रकट होने वाले निजशुद्धात्मा को नमस्कार किया है। उनकी टीका रचना का उद्देश्य भी निजात्मानुभूति द्वारा परमविशुद्धता पाना है तथा उस विशुद्धता की प्राप्ति हेतु स्यात्पद मुद्रांकित जिनेन्द्र के वचनों में रमण करना जरूरी है। जिन वचनों में रमण करने से शीन १. समयसार कलश, ३
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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