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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
द्रव्यस्य गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि । यथा देवदत्तः फलमड कुशन धनदताय वृक्षावाटिकायामवचिनीतीत्यन्यत्वे कारकः व्यपदेशः, तथा मृत्तिकापटभावं स्वयं स्वेन स्वरमं स्वस्मात् स्वस्मिन् करोतीत्यात्मात्मानमात्मनात्मने आत्मन प्रामिनि जानास्यास्यमिदा प्रशवरत्तस्य प्रांशुमौं रित्यत्यत्वे संस्थानं, तथा प्रांशोवृक्षस्य प्रांशुः शाखाभरो मुर्त द्रव्यस्यमूर्ता गुणा इत्यन्यत्वेऽपि यथैकस्य देवदत्तस्य दशगाव इत्यन्यत्वे संख्या, तथै कस्य वृक्षस्य दशशाखा:, एकस्य द्रव्यस्यानन्ता गुणा इत्यन्यत्वेऽपि । यथा गोष्ठं गाव इत्यन्यत्वे विषयः, तथा वृक्षे शाखा: द्रव्ये गणाः इत्यन्यत्वेऽपि । ततो न व्यपदेशादयो द्रव्यगुणानां वस्तुत्वेन भेदं साघवंतीति"१ षट्कारकों के ऐसे प्रयोग गद्य में ही नहीं, पद्य में भी वे करते हैं और उसके द्वारा अपने सिद्धांत को स्पष्ट कर देते हैं। उदाहरण के लिए तत्त्वार्थसार(उपसंहार) के निम्न श्लोकों में गुणगुणी के भेद को गौण करके अभेदविवक्षा से आत्मr को दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप निरूपित करते हुये लिखा है कि
पश्यति स्वस्वरूप यो जानाति च चरत्यपि । दर्शनज्ञान चारित्रत्रयमात्मैव सः स्मृतः ।। ।। १श्यति स्वरूपं यं जानाति च चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः || ६||
१. पंचास्तिकाय गाथा ४६ की टीका- अर्थ-व्यपदेश आदि मात्र से द्रव्य व गुणों के
अन्याने के प्रसंग का खण्डन किया है। जैसे "देवदत्त की माम" इरा प्रकार के अन्यपने में षष्ठी का ध्यप्रदेषा होता है, में से ही "वृक्ष की माला" मा 'द्रव्य के गुण" इस प्रकार के अनन्यपने में भी घष्ठी का व्यपदेश होता है। उसी तरह "मिट्टी स्वयं पटभाम' को अपने द्वारा, अपने लिये, अपने में से, अपने में करती है, तथा आत्मा, आत्मा को, यात्मा यारा, प्रात्मा के लिये, पारमा में से, प्रात्मा में जानना है" ऐसे अनन्यपने में भी कारक व्यपदेश होता है । जिस प्रकार "ऊवे देवदत्त की ऊंची गाय" ऐसा अन्यपने में संस्थान होता है, उसी प्रकार विशालनक्ष का विशाल शाखासमुदाय, मुलं द्रव्य के मूर्तगुण, ऐसे मनन्यपने में भी संस्थान होता है । जिस प्रकार "एक देवदत्त की दस गायें" ऐसे अन्यपने में भी संख्या होती है, जिस प्रकार बाड़े में गायें" ऐसे अन्यपने में विषय (अाधार) होता है, उसी प्रकार “वृक्ष में शाखायें" द्रव्म में गुण ऐसे अन्वपने में भी विषा (प्राधार) होता है, इसलिए व्यपदेशादि मात्र से द्रव्य तथा गुणों में भेद सिद्ध नहीं होता ।