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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
परिणामेनेति द्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्यन्त इति वा अर्थाः पर्यायाः ।" उपरोक्त अंग में "ऋ" धातु से विभिन्न प्रत्यय परिवर्तित करके "अर्थ", यति अर्यन्तः इति तथा अर्थमाणं शब्दों की निष्पति की गई है जो एक कुशल वैयाकरण के द्वारा ही सम्भव है ।
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२. अमृतचन्द्र के वाङमय में अधिकांश प्रत्ययों के प्रयोग से निष्पन्न शब्द उपलब्ध हैं । उनमें कुछ प्रत्ययों के नाम हैं- क्त्वा, उतमच् शतृ, शानच्, "मत्, यत्, तुमुन्, ईयसुन्, अण् इत तथा अन्य अनेक तद्धित-कृदन्त प्रत्यय इत्यादि । उनके द्वारा व्याकरण से सम्बन्धित सभी प्रकार के नियमों, प्रयोगों तथा सूक्ष्मताओं का भलीभांति निर्वहन किया गया है ।
प्रचलित शब्दावलि, विभिन्न उपसर्गों से निर्मित विभिन्नार्थक पद, सभी प्रकार की संधि, समास, बारूद संज्ञा, विशेषण आदि संज्ञाओं का क्रियारूप में प्रयोग जैसे - आत्मीकुर्वन् ज्ञेयोकुर्वन्, ज्ञानीकुर्वन् सूत्रयति सूत्रयिष्यते, आसूत्रयते, आसूत्रयति कक्षीक्रियते, द्रवीकुर्युः, हेमीक्रियेरन् पर्यायेकुर्युः, पर्याय मात्री कियेत् इत्यादि प्रयोगों से उनकी व्याकरणशता भलीभांति विदित होती है ।
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४. वे षट्कारकों के प्रयोग द्वारा क्लिष्टतम सिद्धांत को भी बड़ी चातुरी के साथ समझा देते हैं । यथा एक स्थल पर द्रव्य तथा गुणों में अन्यपने का व्यपदेश (कथन) होने पर भी वे सर्वथा एकांतरूप से अन्य नही होते, अपितु उनमें अनन्यपना भी घटित होता है, इसका स्पष्टीकरण करते वे लिखते हैंहुए
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"व्यपदेशादीनामेकांतेन द्रव्यगुणान्यत्व निबंधनत्वमत्र प्रत्याख्या - तम् । यथा देवदत्तस्य गौरित्यत्त्वे षष्ठीव्यपदेश:, तथा वृक्षस्यशाखा,
१. प्रचलनसार गाथा ८७ की टीका - अर्थ उनमें जो गुणों को और पर्यायों को प्राप्त करते हैं-पहुँचते हैं प्रथवा जो गुणों और पर्यायों के द्वारा प्राप्त किये जाते है -हुँचे जाते हैं ऐसे अर्थ वे द्रव्य हैं, जो द्रव्यों को ग्राश्रय रूप में प्राप्त करते हैं-पहुँचते हैं अथवा जो प्राश्रयभूत द्रव्यों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैंपहुँच जाते हैं ऐरो अर्थ के गुण हैं तथा जो दथ्यों को क्रमपरिणाम से प्राप्त करते हैं-पहुंचे हैं प्रथवा जो द्रव्यों के द्वारा क्रमपरिणाम को प्राप्त किये जाते हूं, पहुँचे जाते हैं ऐसे अर्थ व पर्याय हैं ।
३. वही, गाया १३७ की टीका
२. प्रवचनसार गाथा २०० को टोका ४. प्रवचनसार गाथा १११ की टीका