________________
व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
पुद्गलस्कंधों को भो (अणु महानपना होने से) कायपना सिद्ध है।' अमृतचन्द्र एक कुशल व्याकरणज्ञ होने से वे प्रथम व्युत्पत्ति में उत्पन्न शंका को दूर करने के लिये वितीय व्युत्पति प्रस्तुन करते हैं 1 शंका यह है कि अणुमहान् की युत्ति में प्रदेशों (अणुप्रों) के लिए बहुवचन का उपयोग किया है, जबकि संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार द्विवचन का समावेश बहुवचन में नहीं होता, इसलिये पुनः व्यत्पत्ति में परिवर्तन करके द्वि-अणुक स्कंधों को भी कायत्व सिद्ध किया। आगे फिर से परमाणुओं के कायपने की सिद्धि करने हेतु तृतीय व्युत्पत्ति प्रस्तुत करते हुए व लिखते हैं-"प्रणवश्च महान्तश्च व्यक्तिशक्ति रूपाभ्यामिति परमाणनामेनाप्रदेशात्मकत्वेऽपि तसिद्भिः ।"२ अर्थात पक्ति और शक्ति रूप से अणु तथा महान् होने से (अथवा परमाणु व्यक्ति रूप से एक प्रदेशी तथा शक्ति रूप से अनेक प्रदेशी होने के कारण } परमाणुओं को भी, उनके एकप्रदेशीपना होने पर भी प्रणुमहान पना - कायपना सिद्ध होता है।
२. एक कुशल वैयाकरण की व्याख्या व्युत्पत्ति अथवा निरूक्ति परक हुआ करता है । पूर्व में उनको व्युत्पत्तिपरक शैली की चर्चा का उल्लेख किया जा चुका है । यहाँ फिर भी उनको उक्त व्याख्यापद्धति का एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है । द्रन्त्र पद की व्याख्या कारते हुये वे लिखते हैं-"द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण स्वरूपेण व्याप्नोति, तांस्तान् क्रम शुवः सहभुवश्च सद्भाव पर्यायान् स्वभावविशेषानित्यानुगतार्थया निरुक्त्या द्रव्यं व्याख्यातम् ।' अर्थात् जी द्रवित होता है प्राप्त होता है, सामान्यरूप स्वरूप से जो व्याप्त होता है, वह द्रव्य है।" इस प्रकार ("द्र" धातु का अनुसरण करने वालो) अनुगत अर्थ बाली निरुक्ति से द्रव्य की व्याख्या की गई है। इसी प्रकार द्रव्य-गुण तथा पर्याय में एक ही अर्थवाचीपना पाया जाता है, इसके स्पष्टीकरण हेतु वे बड़ी कुशलता के साथ "ऋ" धातु से "अर्थ" पद की निष्पत्ति दिखाते हुए लिखते हैं-'तत्र गुणपर्यायानिर्यति गुणपर्यायरय॑न्त इति वा अर्था द्रव्याणि, द्रव्याण्याश्रयत्वेनेति द्रव्य राश्रयभूतरर्यन्त इति वा अर्थी गुणाः, द्रव्याणि
१. वही, गाथा ४ की टीका २. वहीं, माथा ४ कही टीका ३. पंचास्तिवाय गाथा ह की टीका