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ध्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
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ही उच्च ज्योतिस्वरूप शुद्धात्मा (समयसार) के दर्शन होते हैं। ऐसी आत्मज्योति का दर्शन टीकाकार पद-पद पर करते हैं। इस प्रात्मज्योति के अनुभव में एकमात्र (अत) आत्मा ही प्रकाशित होता है, अन्य समस्त विकल्प छूट जाते हैं। प्राचार्य प्रभृतचन्द्र ऐसी अनुभूति प्रकट करने की कल्याणकारी प्रेरणा सम्पूर्ण जगत् को देते हैं। वे लिखते हैं कि भगवान प्रात्मा की महिमा आत्मानभवगम्य है। तथा अनभव या अनभूति शुद्धनयरूप है, उसे ही ज्ञानानभूति कहते हैं। अतः अपनी प्रात्मा को अपनो प्रात्मा में अचल रूप से स्थिर कर देखने पर अपना आत्मा सर्व ओर से सदा एक ज्ञानघन ही अनुभव में आता है। ऐसी अनुभूति उन्हें निरन्तर होती रहती है, इसीलिए वे स्पष्ट घोषणा करते हैं कि उसे "सततं अनभवामः"हम हमेशा अनभव करते हैं।
आचायें अमृतचन्द्र अध्यात्मरस के रसिक तो थे ही, साथ ही समग्र जगत को भी इस अध्यात्म रस का रसास्वाद करने की प्रेरणा देते हए वे लिखते हैं - "यह सम्पूर्ण जगत् अब तो इस अनादिकालीन मोह को छोड़कर अध्यात्म रसिकों को रूचिकर भेदज्ञान का आस्वादन करें।" उनकी अध्यात्म रसिकता का ज्वलंत प्रमाण यही है कि वे चाहते हैं कि जगत् के प्राणी किसी प्रकार भी, यहाँ तक कि मरकर के भी गुद्धात्मामुभुति की प्राप्ति हेतु कौतुहली (जिज्ञासु) मात्र भो बन जावें, तो एक मुहूर्तमान में परद्रव्य-परभावों से पृथक् प्रकाशमान अपने आत्मा को देखकर उसका अनुभव कर सकते हैं और परद्रव्यों के साथ की एकत्वबुद्धि-मोहभाव को स्वयं ही शीघ्र छोड़ सकते हैं।' आत्मानुभूति के (आनन्द) को प्रकट करते हुए वे लिखते हैं - "मैं सर्वाङ्ग में आत्मरस से परिपूर्ण अपने एक स्वरूप को स्वयं संचेतन अनुभव करता हूँ। मोहजन्यभाव मेरे कोई नहीं है कोई नहीं है, मैं तो शुद्ध चैतन्यरस का महोदघि हूं। ५. इस प्रकार समस्त परद्रव्यों के भावों के साथ भिन्नत्व का ज्ञान हो जाने पर अपना यह उपयोग स्वयं अपने एक स्वरूप को ही १. समयसार कलश ४
२. वही, कलश ८ ३. वही, कला
४. वही, कलश, ११ ५. वही, कलश १२
६. वही, कलश १३ ७. अहो, कलश, २०
८. वही, कलश २२ ९. वहीं, कलश २३
१०, वही, कलश, ३०