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________________ १८६ ] [ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व वस्त्र लाने तथा उसे अपना समझने' निजक रतल निन्यस्त विस्मृतचामीक रावलोकन न्याय२ माठ लकड़ियों के संयोग से निर्मित भिन्न पलंग पर सोने वाले पुरुष की भांति इत्यादि अनेक दृष्टांत आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी व्याख्या में दिये हैं उन्हें ज्यों का त्यों प्राचार्य जयसेन ने अपनी तात्पर्यवृत्ति में भी ग्रहण कर प्रस्तुत किया है। इतना ही नहीं, कहीं कहीं तो जयसेन ने अमृतचन्द्र की सूत्ररूपेण काथ नशैली को भी उसी रूप में निर्दिष्ट किया है। उदाहरण के लिए अमृतचन्द्र एक स्थल पर लिखते हैं- "एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेष क्रोधमाननायालोभकर्मनोकर्म मनोवचनकायधोत्रचक्षनांगरसनस्पर्शन सूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनयादिशान्यान्यप्यूहामि ।' इसी का अनुकरण भी देखिये प्राचार्य जयसेन द्वारा, यथा - एवमेव मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वपक्रोधमानमायालोभकर्ममनोवचनकायथोत्रचक्षुणिरसनस्पर्श सूत्राणि षोड़श व्याख्येयानि । अनेन प्रकारेणान्यान्यप्यसंख्येयलोकमात्रअमितानि विभाव परिणामरूपाणि ज्ञातव्यानि । अमृतचन्द्र का जयसेन पर गहन एवं व्यापक प्रभाव का सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि जयसेन ने कहीं कहीं तो समयसार की गाथा पर अपनी कुछ भी व्याख्या न लिखकर आचार्य अमृतचन्द्र की सम्पूर्ण गाथा टीका को यथावत् उद्धृत कर दिया है। उदाहरण स्वरूप प्रमुतचन्द्राचार्य कृत समयसार की गाथा क्रमांक २६६ से २६६ तक की आत्मख्याति टीका जयसेन ने शब्दशः पूर्णतः उद्धृत की है। १. गाथा ३५ पृष्ठ ७४ २. गाथा ३८ पृष्ठ ८० ३. गाथा ४४ पृष्ठ १० ४. तुलना हेतु गाथा क्रमांक ३४, ३५, ४०, ४३, ४६ की तात्पर्यवत्ति टीका द्रष्टव्य है। ५. समयसार, गाथा ३६, प्रात्मत्याति टीका, पृष्ठ ७७ - ५८ ६. समयसार, गाथा ४१, ताल्पनि पृष्ठ ३७ ७. समयसार की गाथा क्रमांक ३१७, ३१८, ३१९ तथा ३२० की तात्पर्यवृप्ति टीका द्रष्टव्य है।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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