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________________ व्यक्तिस्त्र तथा प्रभाव । लक्ष्यते तत्तावत्समस्तमेवैकः खल्वात्मा । एतदर्थमेवात्रास्यज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ।। इस प्रकार उपरोक्त गद्यांश में जहां एक ओर अमृतचन्द्र की है दार्शनिक गंभीरता, सैद्धांतिक प्रौढ़ता तथा स्पष्टता के दर्शन होते हैं, वही है। उनकी सहेतुक एवं प्रवाहपूर्ण गद्यशैली में प्रकरण की सुस्पष्टता सिद्धांतहै विकता तथा निरूपण कुशलता को छाप साहिल्यरसिको पर पड़ती है । ममतचन्द्र का गद्य भावातिरेक के कारण पद्यमयता में परिणत प्रतीत होता है। उनका 'पद्य तो पद्यरूप है ही, परन्तु गद्य भी पद्यरूपता को धारण करता है। उनके गद्य में पद्यमयता का रस होने से “गद्यकाव्य की श्रेणी में उसकी गणना होती है। इन पर: किराना पस्पती को प्राप्त होता है उसका नमूना देखिये। शिष्य का प्रश्न है कि हमारा परमार्थ व हितकारी पद क्या है ? इसके उत्तर स्वरूप वे लिखते हैं : 1. "पारमा अनेकांतमय है फिर भी उसका ज्ञानमात्रता से क्यों व्यपदेश किया जाता हैं? लक्षरण की प्रसिद्धि को द्वारा लक्ष्य की प्रसिद्धि करने के लिए प्रात्मा को ज्ञानमात्र रूप से व्यपदेश किया जाता है। प्रात्मा का ज्ञान लक्षगा है, क्योंकि जान प्रात्मा का अभाधारण गुण है; इसलिए ज्ञान की प्रसिद्धिः द्वारा उसके लक्ष्य प्रात्मा की प्रसिद्धि होती है। इस लक्षण की प्रसिद्धि से क्या प्रयोजन है ? मान लक्ष्य ही प्रसाध्य (प्रसिद्धि करने योग्य) है ? जिसे लसण अप्रसिद्ध हो उसे लक्ष्य की प्रसिद्धि नही होती। जिसे लक्षण प्रसिद्ध होता है उसी को लक्ष्य की प्रसिद्धि होती है। ऐसा कौन सा लक्ष्य है कि जो ज्ञान की प्रसिद्धि के द्वारा उससे भिन्न प्रसिद्ध होता है ? ज्ञान से भिन्न लक्ष्य नहीं है, क्योंकि जान और भात्मा में द्रव्यपने से अभेद है । तब फिर लक्षण और लक्ष्य का विभाग किसलिए क्रिया गया है ? प्रसिद्धत्व और प्रसाध्यमानत्व के कारण लक्षण और लक्ष्य का विभाग किया जाता है। ज्ञान प्रसिद्ध है क्योंकि ज्ञानमात्र को स्वसंवेदन से सिद्धपना है । वह प्रसिद्ध शान के द्वारा प्रसाध्यमान, तदविनाभूत प्रनन्त समुदामरूप मूर्ति आत्मा है इसलिए ज्ञानमात्र में प्रचलितपने से स्थापित दृष्टि के द्वारा अमरूप और अमरूप प्रवर्तमान, तदनिनाभूत अनंतधर्म समूह कुछ जितना सक्षित होत है, वह सन्न वास्तव में एक प्रात्मा है । इसी कारण से यहां प्रात्ना का ज्ञानमात्रता से व्यपदेश है। (समयलार, प्रारमख्याति टीका, परिशिष्ट पृष्ठ ५८६)
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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