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। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व इस प्रकार का चारित्र प्रात्मा के होता है, इसकी सिद्धि हेतु वे लिखते हैं:
'यत्खलु द्रध्यं यस्मिन्काले येन भावेन परिणमति तत् तस्मिन् काले किलोष्पयपरिणतायःपिण्डवत्तन्मयं भवति । ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एत भवतीति सिद्धमात्मनश्चारित्रत्वम ।"५ ।
इस प्रकार जहां उन्होंने एक ओर सरल सुबोध और प्रवाही गद्य का प्रयोग किया है, वहीं उनके दार्शनिक, गहन एवं गूढ़तम सिद्धांतों के विवेचन में क्लिष्ट, दुर्गम तथा प्रौढ़ गद्य का भी प्रयोम मिलता है । ऐसे स्थलों पर लेखक की विद्वत्ता, प्रौढ़ना तथा गभीर दार्शनिकता के भी दर्शन होते हैं । एक स्थल पर 'अनेकांत स्वरूप आत्मा को ज्ञानमात्रपने से व्यपदेश करना किस प्रकार सम्भव है इस सन्दर्भ में अनेकांत का सविस्तार खुलासा करते हुए वे अपनी प्रौढ़तम गद्यशनी में लिखते हैं:"नन्वनेकांतमयस्यापि किमर्थमत्रात्मनो ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ? लक्षण प्रसिद्धया लक्ष्यप्रसिद्धियर्थम् । आत्मनो हि ज्ञानं लक्षणं तदसाधारणगुणत्वात् । तेन ज्ञान प्रसिद्ध्या तल्लक्ष्यस्यात्मनः प्रसिद्धि: । ननु किमनया लक्षणप्रसिद्ध्या, लक्ष्यमेव प्रसाधनीयम् ? नाप्रसिद्धलक्षणस्य लभ्यप्रसिद्धिः, प्रसिद्ध लक्षणस्यैव तत्त्रसिद्धः । ननु कि तल्लक्ष्यं यज्ज्ञानप्रसिध्या ततो भिन्न प्रसिद्ध्यति ? न ज्ञानाद्भिन्नं लक्ष्य, ज्ञानात्मनो व्यत्वेनाभेदात् । तहि कि कृतो लक्ष्य लक्षण विभागः ? प्रसिद्धप्रसाध्यमानत्वात् कृतः । प्रसिद्ध हि ज्ञान, ज्ञानमात्रस्य स्वसंवेदनसिद्धत्वात् तेन प्रसिद्धेन प्रसाध्यमानस्तदविनाभूतानंतधर्मसमुदयमूर्तिरात्मा । ततो ज्ञानमात्राचलितनिखातया दृष्ट्या क्रमाक्रमप्रवृत्त तदविनाभूतं अनन्तधर्मजातं यद्याव
१. वास्तव में जो द्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणमन करता है, वह व्य
उस समय "उष्णतारूप से परिणमित लोहे के गोले की भांति उस मय है, इसलिए यह यात्मा धर्मरूप परिणमित होने से धर्म ही है। इस प्रकार आत्मा बी चारित्रता सिद्ध हुई। प्रवचनसार, गाथा ८ की टीका ।