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________________ ६६ | [ आचार्य प्रभृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व "इह खलु भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल अतव्यभिस्वभावेनोपलभ्यमानाः श्रनियतत्वावस्थाः, अनेवे, क्षणिकाः, चारिणो भावाः ते सर्वेऽपि स्वयमस्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुमशक्यत्वात् अपदभूताः । यस्तु तत्स्वभावेनोपलभ्यमानः नियतत्वावस्थाः, एकः, नित्यः, अव्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुं शक्यत्वात् पदभूतः । ततः सर्वानिवास्थायिभावान् मुक्त्वा स्थायिभावभूतं परमार्थं रसतया स्वदमानं ज्ञानमेकमेवेदं स्वाद्यम् । ני एकमेव हि तत्स्वद्यं विपदामपदं पदम् । अपदान्येव भासते पदान्यन्यानि यत्पुरः ।। १३६ ।। १ इस प्रकार गद्याश में कथित भावार्थ ही भावातिरेक के कारण पद्यरूप परिणत होकर व्यक्त हुआ है। आत्मख्याति टीका में उक्त प्रकार के गद्य में पद्यमयता के दर्शन पद-पद पर प्राप्त होते हैं । इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र का गद्य साहित्य श्रेष्ठ तथा प्रौढ़तम गद्यकाव्य वैशिष्ट्यों से विभूषित है। एक स्थल पर क्षायिकज्ञान अथवा केवलज्ञान को एकांततः सुखस्वरूप निरूपण करते हुए, उसमें खेद ( श्राकुलता ) की संभावना का खण्डन तथा केवलज्ञानियों में ही पारमार्थिक सुख होता है १. वास्तव में, इस भगवान श्रात्मा में बहुत से द्रव्य भावों के मध्य में से, जो अतत्स्वभाव से अनुभव में घाते हुए. ( श्रात्मा के स्वभाव रूप नहीं किन्तु परव्यभि स्वभावरूप अनुभव में आते हुए) अनियत अवस्थावाले, अनेक, क्षरिंग क चारी भाव हैं, वे सब स्वयं अस्थाई होने के कारण स्थाता ( रहने वाले) के स्थान नहीं हो सकने योग्य होने से प्रपदभूत हैं, और जो तत्स्वभाव से (आत्मस्वभावरूप से) अनुभव में प्राता हुआ, नियत अवस्थावाला, एक, नित्य, श्रव्यभिचारी भाव ( चैतन्यमात्र शानभाव ) है, वह एक ही स्वयं स्थायी होने से स्थाता का स्थान हो सकने योग्य होने से पदभूत है । इसलिए समस्त अस्थायी भावों को छोड़कर, स्थायी भावरूप आला, परमार्थ रसरूप से स्वाद में आने वाला यह एक ज्ञान ही श्रास्वादन के योग्य है । पद्य का अर्थ - " वह एक ही पद ग्रास्वादन के योग्य है, जो कि विपत्तियों का पद है ( अर्थात जिसमे श्रापदायें नहीं आ सकती हैं) तथा जिसके समक्ष समस्त अन्य पद अपद ( दुखदायी - माकुलता रूप ) ही भासित होते हैं ।" समयसार गाथा २०३ की प्रात्यख्यानि टीका तथा १३६ व कलश |
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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