________________
जीवन परिचय ।
। ४३
(केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एफ. डब्ल्यू. थामस लन्दन ने भी अमृतचन्द्र के पट्टारोहण के उक्त काल को ही उचित माना है।'
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र के समय पर विचार करते हुए उनकी समयावधि को विक्रम की तेरहवीं सदी के अन्त से संकोचकर विक्रम सं. ६६२ से १०१५ के बीच तक लाकर स्थिर किया गया। विक्रम संवत ६६२ के पूर्व के प्रमाणों के अभाव होने से उक्त सीमा को और अधिक संकुचित नहीं किया जा सकता।
इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध होते हैं कि अमृतचन्द्र ने स्वयं अपने पूर्ववर्ती आचार्यों में विक्रम की आठवीं सदी तक के आचार्यों का अनुकरण किया है। ऐसे आचार्यों में यहाँ प्राचार्य अकलंक का उल्लेख करना उचित है । आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रकलं कस्वामी का अनुकरण हो नहीं, अपितु उनके भाष्य तत्त्वार्थ राजवातिक का अपने नथ तत्त्वार्थसार में विशेष उपयोग किया है। उन्होंने "वार्तिक के गद्यांगों को पद्यों में परिवर्तित कर प्रस्तुत किया है। उदाहरणार्थ
निमित्तान्तरानपेक्ष संज्ञा कर्म नाम ।। ५ ।। सोयमित्य भिसम्बन्धस्वेन अन्यस्य व्यवस्थापनामा स्थापना ।। २ । अनागत परिणाम विशेषः प्रतिगृहीताभिमुख्यं द्रव्यं ।। ३ ।। (तत्त्वार्थ वार्तिक)
या निमित्तान्तरं किंचिदनपेक्ष्य विधीयते । द्रव्यस्य यस्यचित्, संज्ञा तन्नाम परिकीर्तितम् ।।१०।। सोऽयमित्यक्ष काष्ठादेः सम्बन्धेनान्य वस्तुनि । यद् व्यवस्थापनामा स्थापना सभिधीयते ॥११॥ भाविनः परिणामस्य यप्प्राप्तिं प्रति कस्यचित् । स्या, गृहीताभिमुख्यं हि तद्रव्यं ब्रवंते जिनाः ॥१२॥ तत्त्वार्थसार)
इस प्रकार अन्य कई स्थल उदाहरण योग्य हैं अतः निश्चित हैं कि अकलंकदेव अमृत चन्द्र के पूर्वज आचार्य है। अकलंकदेव का समय विक्रम
(१. There is not difficulty in accepting for Amritchandra, the direc. 905 A.D.
furnished by the patinyalis, 5cc Introduction P.24 of the Pravachanasara of Kunda Kundla Acharya, tagether with the commentary, Tattvaeradipika Arurtebandra Suri, English Translation by Barrend Foddegon, Edited with Iniroductiony F.W. Thomas, Pub:-Cambridge, at the University Press, London 1935. Under the Jain literature Society Series Vol. I. 4