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। आमा अगुवचन्द्रगतित्व नौ पात्र
की आठवीं सदी के बाद का नहीं हैं, इसलिए उनके बाद ही अमृतचन्द्र का होना प्रमाणित होता है ।'
इस प्रकार अनेक प्रमाणों, उपलब्ध साधनों के परीक्षणों तथा विद्वानों के अभिमतों के आधार पर आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दसवीं सदी पूर्वार्ध (अर्थात् ६६२) ही निश्चित होता है । विश्वविख्यात जर्मन विद्वान डॉ. विन्टर निदज ने भी पीटर्सन रिपोर्ट के अनुसार आचार्य अमृतचन्द्रकृत, २२६ पद्यवाले "पुरुषार्थसिद्धयुपाय सय की रचना विक्रम संवत् ६६१ (अथवा ईसा सन् ६०४) को ही मानी है अतः आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दसवीं सदी पूर्वार्ध के लगभग निस्संदेह प्रमाणित है।
जोवन परिचय भारतीय संस्कृत वाङमय को अपने असाधारण व्यक्तित्व तथा अप्रतिम प्रतिभा द्वारा समृद्धि एवं प्रौढ़ता प्रदान करने वाले, दिगम्बर जैनधर्म के अध्यात्म, दर्शन तथा अंतर्बाह्य आचार का अपनी टीकाकृतियों तथा मौलिक रचनाओं द्वारा रहस्योद्घाटन करने वाले, अलौकिक प्राध्यात्मिक जीवन जीने वाले, परमानन्द रस ने पिपामुत्रों को अध्यास्मामृत का पान कराने वाले आचार्य प्रमृतचन्द्र के जीवन का परिचय कराने हेतु अद्यावधि अनेक विद्वानों ने असमर्थता ही व्यक्त की है। इस असमर्थता का एकमात्र कारण उनकी लोकिक निस्पहता तथा मोक्षमार्ग रूढ़ अलौकिक जीवन है। उनकी निस्पहता और अलौकिक जीवन का सबसे प्रबल प्रमाण तो यह है कि उन्होंने जिन महान् ग्रंथों की टीकाएं
१. जैन साहित्य का इतिहास, भाग-2, पृष्ठ 183 । ३. "n about 904 A.D. wrote the works 'Purusartha Siddhyupaya' or Jina
Pravacana Rahasya Cosa, in 226 Sanskrit versess, Tattvarthasara, Tattvar diyika und commentaries on Kundokunda's works." (A History of Indian
Literature by Maurice winternitz. PH. D., Vol.-11, Page 584.) - ३. परमानन्दमुधारस पिपासिलानां हिताय भव्यानाम् ।
श्यिते प्रकटिततत्वा प्रवचनसारस्प व रिमरियम् ।।। प्रवचनकार तत्त्वप्रदीपिका ४. जनसाहित्य और इतिहास पं. नाथूराम प्रेमी पृ. ३०६, द्वितीय संस्करण ६५६
जैन साहित्य का इतिहास पं. कैलासचन्द्र शास्त्री, भाग २, पृष्ठ १७२ लघु तत्त्वस्फोट, प्रस्तावना पृष्ठ २ डा. पद्मनाभ जैन, (प्रोफेसर बुद्धदर्शन कलीफोनिया वकले विश्वविद्यालय)