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जीवन परिचय ]
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रची, उन ग्रंथों के प्रणेता आचार्य का ही न तो कहीं परिचय दिया है और न ही कोई उल्लेख किया है, बल्कि टीकाओं तथा मौलिक रचनाओं के कर्तृत्व का भार भी अपने ऊपर नहीं लिया है। उन्होंने अपनी समस्त कृतियों के अंत में कर्तापने का निषेध करने हेतु निजात्म स्वरूप में मग्नपना प्रगट करते हुए पद्य अवश्य रचे है । उन्होंने प्रत्येक ग्रंथ के अंत में जिन शब्दों में घोषणा की है, उनसे उनकी निस्पृहता तथा अलौकिक जीवन की एक झलक अवश्य मिल जाती है। "समयसार" की आत्मख्यातिकलश टीका के अंत में वे लिखते हैं कि अपनी शक्ति से वस्तुस्वरूप को प्रकाशित करने वाले शब्दों द्वारा समयसार की व्याख्या की गई है, निजात्मस्वरूप में मग्न अर्थात् स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्रसूरि का इस टीका रचना में कुछ भी कर्त्तव्य ( कर्तृत्व ) नहीं है।' उक्त घोषणावाक्यों को उन्होंने पंचास्तिकाय ग्रंथ की टीका के अंत में दुहराया है। प्रवचनसार की तस्प्रदीपिका टीका के अंत में तो वे यहाँ तक लिखते हैं कि श्रात्मा सहित विश्वव्याख्येय ( समझाने योग्य) है, वाणी का गंधन व्याख्या ( समझाना ) है तथा श्रमृतचन्द्रसूरि व्याख्याता ( समझाने वाले ) हैं, इस प्रकार की मोहयुक्त मान्यता में, जगज्जनों, मत नाचो ( मत फुलो), किन्तु स्याद्वाद विद्या के बल से प्रादुर्भुत ज्ञानकला द्वारा इस संपूर्णशाश्वत स्वतत्त्व को प्राप्त करके प्राज श्रव्याकुल रूप से नाचो प्रर्थात् परमानन्दमय स्वरूप में मग्न होओ। इसी प्रकार मौलिक कृतियों तत्त्वार्थसार तथा पुरुषार्थसिद्ध युपाय के अंत में भी शास्त्रकर्तृत्व का निषेध करते हुए लिखा है कि अनेक प्रकार के अक्षरों से पत्र रचे गये हैं,
१. स्वशक्तिमूचितवस्तुतस्वव्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दः । स्वरूप गुप्तस्य न किचिदस्ति कर्तव्य मे वाऽमृत चन्द्रसूरेः ॥ २७८ ॥
समयसार आत्मख्याति टीका, पृष्ठ ६०३ (सोनगढ़ १६६४ )
२. पंचास्तिकाय समयभ्याख्या, श्लोक, पृष्ठ २७०, सोनगढ १६६५ द्वितीय संस्करण |
३. व्याख्येयं किल विश्वमात्म महितं व्याख्या तु गुम्फे गिरां । व्याख्यातागृतचन्द्रसूरिरिति मा मोहाज्जनों वातु ॥
aerers विशुद्धबोधकलया स्थाद्वाद विद्याबलात् । लवकं सकलात्म शाश्वतमिदं स्वं तत्त्वमव्याकुलः ||२०|| (प्रवचनसार-तत्वप्रदीपिका टीका, ४१५ सोनगढ़, १९९४ )