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| आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
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पदों से बने गये हैं और उन गायों से यह वित्रशास्त्र बनाया गया है, हमारे द्वारा कुछ भी नहीं किया गया है। "
इस प्रकार परमनिस्पृह् आचार्य अमृतचन्द्र ने लौकिक परिचय के रूप में कहीं भी अपने कुल, गुरु, निवासी, कार्यस्थल तथा समय आदि का उल्लेख नहीं किया है, बल्कि इस प्रकार के लौकिक उल्लेख को वे "मोह में नाचना" कहकर उसका निषेध करते है । वे अपना अलौकिक जीवन परिचय अवश्य यत्र तत्र अनेक बार अपनी कृतियों में देते हुए प्रतीत होते हैं, अतः आचार्य अमृतचन्द्र का जीवन परिचय कराने हेतु हमें दो दृष्टिकोणों से देखना होगा । इनमें प्रथम है उनका अलौकिक आध्यात्मिक जीवन परिचय, जिसके स्रोत उनकी ही कृतियों में प्रचुरमात्रा में उपलब्ध है | दूसरा है उनका लौकिक जीवनपरिचय, जिसके सूत्र उनके समवर्ती और परवर्ती विद्वानों, टीकाकारों एवं लेखकों की कृतियों में उपलब्ध उल्लेखों, पट्टाबलियों तथा विद्वानों के अभिमतों से प्राप्त होते हैं । प्रलौकिक जीवन परिचय :
सर्वप्रथम यहाँ उनके ही शब्दों में उनके अलौकिक जोवन का परिचय कराते हैं। इस अलौलिक परिचय से यह बात स्पष्ट अवश्य होगी कि मोक्षमार्ग में आरूढ़ हुआ आत्मा स्व का (अपना) किस प्रकार अवलोकन तथा अवधारण करता है । वह कैंसर जीवन जीता है । इन सभी का आचार्य अमृतचंद्र ने मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। उससे उनके स्वयं के आध्यात्मिक जीवन पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है और मालूम पड़ता है कि वे अलौकिक जीवन में रम गये थे । ग्रन्थों की टोकाएं लिखना उनका मुख्य प्रयोजन नहीं था, किन्तु इस माध्यम से वे अपने स्वयं के जीवन को मनसा वाचा कर्मणा अनुस्मृत रखना चाहते थे । अतएव उन्होंने अपनी टीका-कृतियों में मोक्षमार्गारूढ़ प्रत्येक आत्मा को माध्यम बनाकर किस प्रकार से चित्रण किया है, उसका विवरण उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है :- मैं कौन हूँ ? प्रश्न के उत्तर में आचार्य अमृतचन्द्र अपना परिचय देते हुए कहते हैं "यह मैं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष,
१. वर्णैः कृतानि चित्र, पदानि तु पदेः कृतानि वाक्यानि ।
वाक्यः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ||
तत्त्वार्थसार, उपसंहार, श्लोक २३ तथा पु. सि. - पच २२६, पृष्ठ १६५ ( सोनगढ़ १६७४)