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से जीवन परिचय ]
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दर्शनशान सामान्य स्वरूप आत्मा हूँ।"१ "मैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यकचारित्र की एकता को प्राप्त हुआ है।"२ "इस लोक में मैं । स्वतः ही अपने एक आत्मस्वरूप का अनुभव करता हूँ वह स्वरूप सर्वतः
अपने निजरस रूप चैतन्य के परिणमन से पूर्ण भरे हुए स्वभाव वाला है,
इसलिए यह मोह मेरा कुछ नहीं लगता अर्थात् मोह से मेरा कोई भी । सम्बन्ध नहीं है । मैं तो शुद्धचैतन्य के समूह रूप तेजपुंज का खजाना हूँ।"3 I में चैतन्य ज्योति रूप आत्मा हू', में मेरे ही अनुभव से प्रत्यक्ष ज्ञात हूँ।
मैं ऐसा घिमात्र तेजपुज हूँ, जो अपने स्फुरणमात्र से ही विपुल महान, * चंचल-बिकल्पतरंगों के इन्द्रजाल को तत्क्षण उड़ा देता हूँ। मैं यह
(बनुभयगोचर ) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भाव हूँ। मैं ऐसा तेजमात्र हूँ, जो अखण्ड, एका, एकाकी, शांत और अचल है !" मेगालो नैना गुण है, उसके द्वारा मैं समान तथा असमानजातीय अन्य द्रव्य को छोड़ कर, मेरे मात्मा में ही प्रवर्तता हूँ और अपनी प्रात्मा को सकल, त्रिकालवर्ती प्रौव्यपने का धारक द्रव्य जानता हूँ। अनंतचैतन्यस्वरूप लक्षणवाली पात्मज्योति को हम निरन्तर अनुभव करते हैं। इस प्रकार
१. "एष स्वस बदन प्रत्यक्ष दर्शनशान सामान्यात्माह"
प्रवचनसार गाथा १ टीका, पृष्ठ ५ । २. सम्यग्दर्शन शानचारितक्यात्मककाम्यं गतोऽस्मि ।
प्रवचनसार गाथा ५ टीका, पुष्ठ ७ । ३ सर्वतः स्वरसनिर्भर भात्रं चेतये रवयमहं स्वमिहैकम् । नास्ति नास्ति मम कपवन मोहः शुद्धचिद्घन महोनिधि रस्मि ।।३०॥
समयसारकलश, आत्मख्याति टीका, पृष्ठ ७७ । ४. सिल्वहमात्मात्म प्रत्यक्ष चि मात्र ज्योति", समयसार गाथा ३८ टीका. प. ५० ५. इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत् पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः । यस्यविस्फुरगामेव तत्क्षणं कृत्स्नमवति तदस्मि चिन्महः ।।१।।
समयमार कलश, पृष्ठ २२१ । ६. "एष टंकोत्कीर्णेकशायकभावोऽहम्" समयसार गाथा १९८ टीका, पाष्ठ ३०४ । ७. तदस्मादखण्डमनिराकृतखंडमेक्रमेकांतशांतमचलं चिदहं महोऽस्मि ।
समयसार गाथा २७० टीका, पृष्ठ ५६७ । . मबीयंममनाम चैतन्यमहमनेन तेन समानजातीयमरामान जातीयं वा द्रव्यमान्यदपहाम ममात्मन्येव वतमानेनात्मीममात्मानं सकल त्रिकाल कलिन प्रौव्यं द्रब्यं जानामि ।
प्रवचनसार, गाभा टीका, पृष्ठ १२५ । १. "सतसमनुभवामोऽनंत चतन्यचिन्ह" समयसार कलश २०, पृष्ठ ५० ।