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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व। मैं कौन हूँ? प्रश्न के उत्तर द्वारा उन्होंने अपना परिचय कराया है, साथ ही "मैं कौन नहीं हूँ? का उत्तर देकर अपने परिचय को विशेष स्पष्ट किया है- यथा मैं आकाश द्रव्य नहीं हूँ', धर्म द्रव्य नहीं हू', अधर्मद्रव्य नहीं हूँ', काल द्रव्य नहीं हूँ, पुद्गल द्रव्य नहीं हूँ सथा निज प्रात्मा को छोड़कर अन्य अनंत आत्मा अर्थात् आत्मांतर मैं नहीं है।' पुनः निष्कर्ष रूप में अपना परिचय कराते हुए उन्होंने स्पष्ट घोषणा की है- मैं स्वयं साक्षात् धर्म स्वरूप हूँ।२ वीतराग चारित्र दशा में परिणत मेरा आत्मा स्वयं धर्म रूप होकर, समस्त विघ्नों का नाश कर सदाकाल निष्कम्प ही रहता है । 3 "मैं यह मोक्षाधिकारी है। ज्ञायक स्वभावी आत्मतत्व के परिज्ञानपूर्वक, ममत्व की त्याग रूप और निर्ममत्व की महण रूप विधि द्वारा सर्व आरम्भ (प्रयास) से शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता ह', क्योंकि मेरे अन्यकृत्य का प्रभाव है । मैं स्वभाव से ज्ञायक हूँ। केवल ज्ञायक होने से मेरा समस्त पदार्थों के साथ भी सहज ही शेय-ज्ञायक लक्षण वाला सम्बन्ध है, किन्तु अन्य प्रकार का स्व-स्वामो लक्षण वाला सम्बन्ध नहीं है, इसलिये मेरा किसी के प्रति ममत्व नहीं है, मैं सर्वत्र निर्ममत्व स्वरूप हूँ। एक ज्ञायक भाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने के कारण मेरा स्वभाव क्रमशः प्रयतमान अनंत भूतकालीन, वर्तमान तथा भविष्यकालीन विभिन्न पर्यायों के समूह वाले, गम्भोरअगाध स्वभाव वाले द्रव्यों को क्षणमात्र में प्रतिविम्बित करता है प्रथवा प्रत्यक्ष करता है तथा प्रत्यक्षीकृत द्रव्य ऐसे प्रतीत होते हैं मानों वे ज्ञायक स्वभाव में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, प्रतिविम्बित हो गये हों। प्रात्मा शायक और सकल द्रव्य ज्ञेय ऐसा ज्ञेय ज्ञायक-सम्बन्ध अनिवार्य है, उमे मिटाया नहीं जा सकता है, इसलिये पात्मा सकल ज्ञेयों की अपेक्षा विश्वरूपता को प्राप्त होता है. परन्तु अपनी स्वाभाविक अनंत शक्ति वाले ज्ञायक स्वभाव की अपेक्षा अपने एकत्वरूप को नहीं
१. नाहमाकाशं न धर्मो, नाधर्मो, न च कालो, न पुदगलो नात्मान्तरं च भवामि ।
प्रवचनसार, गाथा १० की टीका, पृष्ठ १२५ । २. "स्वयं साक्षाद्धर्म एवास्मि" । प्रवचनसार, गाथा १६ टीका, पृष्ठ १२६ । ३. वीतराग चारित्र सूश्रितायतारो ममायमारमा स्वयं धर्मो भूत्वा निरस्त प्रत्यू
हतया नित्यमेव निष्कम्प एवावतिष्ठते । प्रवचनसार, गाथा ६२ टीका, पृ. १३०