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________________ जीवन परिचय । [ ४६ छोड़ता । अनादि संसार से ऐसी ही वस्तुस्थिति रही है, फिर भी मोही जीवों के द्वारा दूसरे रूप में ही आत्मा जाना, माना जाता है, परन्तु यह मैं मोह को उखाड़ फेंकना हुआ, प्रतिनिष्कम्र रहना हुया, अपने शुद्धात्मस्वरूप को जैसा का तैसा ही प्राप्त करता हु।' इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र का परिचय उनके ही मार्मिक शब्दों में प्रगट हुआ है। मोह विजेता अमृतचन्द्र ने अपनी कृतियों में अपने माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों के विषय में कहीं भी किसी प्रकार का लौकिक परिचय नहीं दिया। लौकिला माता-पिता आदि समस्त सम्बन्धों को तो वे मात्र संयोग रूप से जानते थे, परन्तु उन्हें अपना कदापि नहीं मानते थे। उन्हें अपना मानना मोहो जीवों का काम है, मोह विजेताओं का नहीं। मोह विजेताओं को माता-पिता तथा अन्य परिवार के सम्बन्ध सभी अलौकिक ही होते हैं। ऐसे अलौकिक परिवार का परिचय आचार्य अमृतचन्द्र ने अवश्य कराया है। साथ ही लौकिक परिवार को अपना मानने का निषेध किया है, कारण कि वे स्व-पर के भेदज्ञान वाले तथा मोह को जीतने वाले थे। इस बात की पुष्टि उनके निम्न शब्दों से होती है। वे लिखते हैं- मैंने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने को कमर कस ली है। मैंने मोह की सेना को जीतने का उपाय पा लिया है।' १. अहमष मोनाधिकारी ज्ञायकस्वभावात्मनत्व परिज्ञान पुरस्मा ममत्व निर्ममत्व हालोपादान विधानेन कृत्यान्न रस्याभावात् सर्वारम्भेग] शुद्धात्मनि प्रवत अहं हि तावत् ज्ञायक एव स्वभावन, वेवलज्ञायकस्य व सतो मम विश्नेनापि सहज जे यज़ायक लक्षण एवं सम्बन्धः न पुनम्ये स्वस्वामि लक्षणादयः सम्बयाः । ततो मम न वचनापि ममत्वं सर्वत्र निर्ममत्वमेव । अर्थ कस्य ज्ञायकमानल्म ममस्तज्ञयभावस्वभावत्वात प्रीत्कीर्ण-लिखित निरवात-कीलितमजिजत-समतित-प्रतिविम्बितवत् तत्र मप्रवृतानंतभूत भवावि विचित्रपयाय प्राम्भार मगाध-स्वभावं गंभीर समस्तमपि द्रव्यजातमक अगए व प्रत्यक्षयन्त जे पजावक लक्षगा-सम्बन्धस्यानिवायत्वेनाशक्य दिनेचनस्वादुपात्त वैभवमप्यमापि सहजानन्तशकि-जावकर वभावेगक्य रूप्य मनुस्मन्तगासंसार मनयन स्थित्या स्थित मोहेनान्यथा-व्यवस्यमानं शुद्धात्मानमष मोहमुखाय यथावस्थित मेर्वाति निष्पकम्पः संप्रतिपय । प्रवचनसार, गाथा २०० टीका, पृष्ठ ३०३-३०४ २. "मया मोहवाहिनी विजयार बड़ा कक्षेयम" प्रवचनसार, गाथा ७६ टीका, पृष्ट ११२ ३. "लब्धोमया मोहवाहिनी विजयोपायः ।" प्रवधनसार, गाथा ६० टीका, पृष्ठ ११२
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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