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| आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
मुभं मोह नहीं है, स्व-पर का विभाग है ।' लौकिक परिवार ममकार निषेध करते हुए है कि बिते हैं- "अहो इस पुरुष के शरीर (अर्थात् मेरो आत्मा से सम्बन्धित शरीर ) के जनक- पिता के आत्मा तथा इस पुरुष के शरीर की जननी माता के आत्मा, इस पुरुष का ( मेरा ) श्रात्मा तुम्हारे द्वारा जनित ( उत्पन्न किया हुआ) नहीं हैं, ऐसा तुम निश्चय से जानो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह ( मेरा ) आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादि जनक के पास जा रहा है ।" "अहो इस पुरुष के ( मेरी आत्मा से सम्बन्धित ) शरीर की रमणो (पत्नी) के श्रात्मा, तू इस पुरुष के आत्मा को रमण नहीं कराना, ऐसा तू निश्चय से जान । ज्ञान ज्योति प्रगदित ( मेरा ) यह ग्रात्मा श्राज अपनी स्वानुभूतिरूपी अनादि रमणी (पत्नी) के पास जा रहा है । ३ अहो, इस पुरुष के शरीर के पुत्र के आत्मा, तू इस पुरुष ( मेरे आत्मा) का पुत्र नहीं है ऐसा तू निश्चय से जान । ज्ञानज्योति उदित ( मेरा ) यह आत्मा ग्राज आत्मारूपी अनादि पुत्र के पास जा रहा है ।" "अहो इस पुरुष के शरीर के बन्धुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओं ! इस पुरुष का ( मेरा ) आत्मा किचित् मात्र भी तुम्हारा नहीं है, इस प्रकार तुम निश्चय में जानो । ज्ञानज्योति उदित यह (मेरा ) आत्मा आज अपने ग्रात्मारूपी अनादि बन्धु के पास जा रहा है।""
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१.
नाति में मोहोऽस्ति स्त्र पर विभागः । "
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प्रवचनसार, गाथा १५४ टीका, पृष्ठ २५० २. "अहो इदं जनशरीरजनकस्यात्मन् श्रहो इवं जनमरीर जनन्या श्रात्मत् । अस्य जनस्यात्मा न युवाभ्यां जनितो भवतीति निश्चयेन युवां जानीतं । अयमात्मा अद्योभिनज्ञानज्योतिः श्रात्मान देवात्मनोऽनादि जनकमुपसर्पति ।" प्रवचनसार गाथा २०२ टीका, पृष्ठ ३०६ श्रस्य जनस्थात्मानं न त्वं रमयस- इति प्रद्योद् भिन्नज्ञानज्योतिः स्वानुभूतिमेवावहीं, गाथा २०२ टीका, पृष्ठ ३०६-३१० ग्रस्य जनस्यात्मनो न त्वं जन्मो भवमीति निश्वयेन त्वं जानीहि । श्रयमात्मा श्रोदुभिन्न ज्ञानज्योतिः श्रात्मानमेवात्मनोअनादि जन्यमुपसर्पति ।"
वहीं, गाया २०२, पृष्ठ ३१०
५. अहो इदं जनशरीर बन्धुवर्गवर्तन प्रात्मानः गुष्माकं भवतीति निश्चयेन यूयं जानीत श्रात्मानमेवात्मनोऽनादि बन्धुमुपसर्पति । प्रवचनसार, गाथा २०२ टीका,
अस्य जनस्यात्मा न किंचनापि श्रयमात्मा अद्योविज्ञानज्योतिः
३. "अहो इदं जनशरीर रमण्या आत्मन् निश्चयेन त्वं जानीहि । अयमात्मा मनांनादि रमणीमुपसर्पति ।" ४. ग्रहो इदं जनशरीर पुत्रस्यात्मन्
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पू. ३१०