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________________ } व्यक्तित्व तथा प्रभाव ] [ १३७ करते हैं । न्यायशैली में निरूपण तथा वस्तुसिद्धि करते समय वे अन्य मान्यताओं का निराकरण आगम, युक्ति तथा स्वानुभव प्रमाण के बल पर करते हैं । वहाँ उनका उत्कृष्ट नैयायिक का रूप प्रस्फुटित हो जाता है । उदाहरण स्वरूप एक स्थल पर आत्मा के असली स्वरूप को न जानने वालो की विविध प्रकार की असत्य कल्पनाओं और मान्यताओं का सचोट, सतर्क एवं स्वानुभवप्रमाण युक्त शब्दों में खण्डन करते हैं कि "इस जगत में आत्मा का असाधारण लक्षण न जानने के कारण नपुंस कता से अत्यन्त विमूढ होते हुए, तात्विक श्रात्मा को न जानने वाले बहुत से अज्ञानीजन अनेक प्रकार से घर को भी आत्मा कहते हैं - बकते हैं । उनमें कोई तो अध्यवसान को कई कर्म को, कई अध्यवसानों की परिपाटी को, नोकर्म रूप शरीर को, कर्म के उदय को, कर्म के तीत्रमंदरूप गुणों के अनुभव को, आत्मा और कर्म के मिश्रण को कोई कर्म के संयोग को प्रात्मा कहते हैं, तथा अनेक प्रकार से दुर्बुद्विजन पर को आत्मा निरूपित करते हैं, परन्तु परमार्थ के ज्ञाता उन्हें सत्यार्थवादी नहीं मानते ।' वे सत्यार्थवादी क्यों नहीं है देखिये अमृतचन्द्र की न्यायाली के ही मूल कथन को, जो इस प्रकार है 7 "यतः एतेऽध्यवसानादयः समस्ता एवं भावा भगवद्भिविश्वसाक्षिभिरर्हद्भिः पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेन प्रज्ञप्ताः संतवचैतन्यशून्यात्पुद् गलद्रव्यादतिरिक्तत्वेन प्रज्ञाप्यमानं चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितुं नोत्सहते ततो न खल्वागमयुक्ति स्वानभर्वर्बाधितपक्षत्वात् तदात्मवादिनः परमार्थवादिनः । एतदेव सर्वज्ञवचनं तावदागमः । इयं तु स्वानुभवगर्भितायुक्तिः । न खलु नैसगिक रागद्वेषकल्माषितमध्यवसानं जीवस्तथाविधाध्यवसानात्कार्तस्वरस्येव श्यामिकाया प्रतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खल्वानाद्यनंतपूर्व पारीभूतावयवैक संसरण लक्षण क्रियारूपेण कीउत्तमंत्र जीवकर्मणोंतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्यविवेचकः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु तीव्रमंदानुभवभिद्यमान दुरंत रागरस निर्भराध्यवसानसंतानो जीवस्ततोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु नवपुराणा J - १. समयसार गाथा ४३ की टीका "इह खलु तदसाधारणलक्षणा कल नारकलीवत्वेनात्यंतविमूढाः संतस्तात्विक मात्मानमजानतो बहवो बहुषा परमप्यात्मानमिति प्रलयंति ।.......... एवमेव प्रकारा इतरेपि बहुप्रकाराः परमात्मेति व्यपदिशति दुर्मेधसः किन्तु न ते परमार्थ वादिभिः परमार्थवादिन इति निदिश्यन्ते ।"
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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