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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व स्वयं कलश इव जड़ स्वभावज्ञानाबरणादिकर्मपरिणतं तदेव स्वयं जानावरणादिकर्म स्यात् । इति सिद्धं पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वम् ।"
उपरोक्त गद्यांश को अति संक्षेप में तर्क तथा न्याययुक्त शैली में पद्य रचना द्वारा भी व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं
(उपजाति छद) स्थितेत्यविघ्ना खलु पुगलस्य स्वभावमूसा परिणाम शक्तिः । तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ॥६४॥
इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र जहाँ एक ओर अपनी अकाट्य , अखण्डित युक्तियों (तो) को प्रस्तुत कर वस्तुस्वरूप की सिद्धि करते हुए अपनी तार्किक शक्ति का ज्वलत उदाहरण प्रकट करते हैं, वहीं पर दूसरी ओर यायशैली में गम्भीर दार्शनिक गुत्थियों को बड़ी कुशलता के साथ सुलझाते हुए अपने उच्चकोटि के नैयायिकपने को भी प्रमाणित
१. समयसार गाथा ११६ मे १२० तक की प्रात्मख्याति टीका का अर्थ - यदि
गुदगलद्रव्य जीव में स्वयं न बंधकर कर्मभाव से स्ववमेव न परिणामला हो, तो वह अपरिगामी ही सिद्ध होगा । और ऐसा होने से, संसार का अभाव होगा। अदि यहाँ यह तर्क उपस्थित किया जाये कि "जीव गुद्गलद्रव्य को कर्मभाव से परिगामाता है इसलिए संमार का प्रभाव न होगा।" तो उसका निराकरण दो तो द्वारा करते हैं कि क्या जीय स्वयं न परिगा मते हुए पुद्गलष्ट्रव्य को अमेभावरूप परिणमाता है या स्वयं परिणमते हुए पुद्गलद्रव्य को परिणमाता है ? प्रथम ता स्वयं न परिगमले हुए { पुद्गल द्रव्य) को दूसरों के द्वारा नहीं पनिगमाया जा सकता, क्योंकि जो शक्ति वस्तु में) स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर मावाला । (अतः प्रथगपक्ष असत्य है) दूसरे स्वयं परिणामते हुए अन्य को अन्य परिगमाने वाले की अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखती (अतः दूसरा पक्ष भी असत्य है)। अतः (सिद्ध है कि) पुगलद्रव्य परिगामनस्वभाव वाला रवयं ही है। ऐसा होने से, जसे घटरूपपरियमित मिट्टी हो स्वयं घट है उसी प्रकार जइस्वभाव वाले ज्ञानावरगणादिक रूप परिणामित पुद्गलद्रव्य ही स्वयं झानावरणादि कम है। इस
प्रकार पुद्गल ब्रन का परिणाम स्वभावस्व सिद्ध हुश्रा ।। २. उपजाति छन्द का अर्थ – “इस प्रकार पुद्गलद्रव्य की स्वभावभूत परिणमन
शक्ति निविघ्न सिद्ध हुई और उसके सिद्ध होने पर, पुद्गलद्रव्य अपने जिस भाव को करता है उसका वह पुद्गल द्रव्य ही कर्ता है।