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________________ १३८ ] [ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व वस्थादि भेदेन प्रबर्तमानं नोकर्म जीवः शरीरादतिरिक्तवं मान्यस्य चितस्वभावस्थ विवेचकैः स्वयमएलभ्यमानत्वात् । न खलु विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामकर्मविधाको जीवः शुभाशुभभाबादतिरिक्तत्वेनान्यस्य विवेचकैः स्वयमपलभ्यमानत्वात् । म खल सातासातारूपेणाभिव्याप्त समस्ततीवमंदत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभवो जोवः मुख दुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्व मावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयं जीव: कासन्यतः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चिस्वभावस्प विवेचकः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खल्वर्थ क्रियासमर्थः कर्म संघोंगो जीवः कर्म सयोगात्खट्याशायिनः पुरुषस्येवाष्टकाष्ठसयोगादतिरिफ्तत्यनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचक: स्वयमुपलभ्यमानत्वात् ।' .- - १. समयसार गाथा' ४४ की टीका -- "यह समस्त अध्यवसानादि भाम, विश्व के (समस्त पदार्थों के) साक्षात देखने वाले भगवान् (वीतराग-रार्वज्ञ अरहतदेवों के द्वारा पुद्गलद्रव्य के परिणाममग्र' कहे गये हैं. इसलिए ने नैनन्यस्वभावमय जीवद्रव्य के होने के लिए समर्थ नहीं हैं कि जो जीबद्दव्य चैतन्य' भाव से शून्य ऐम पृद्गलइन्य में अतिरिक (भन्न) कहा गया है. अतः जो इन' अध्यवसानादिक पो जीम कहते हैं वे वास्तव में परमार्थवादी नहीं है - क्योंकि नागम, मुक्ति प्ररि स्वानुभव से उनका पक्ष बाधित है। उसमें "वे जीव नहीं है यह सर्वज्ञ का वचन है वह तो अागम है और यह स्वानुभवगभित युक्ति है कि रागदप से मलिन स्वयं ही उत्पन्न होते हए अध्यवमानादिकः जीद नहीं हैं क्योकि कालिमा से भिन्न स्वर्ण की भाति, अध्यवसान से भिन्न अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं अपलभ्यमान है । १। जिगका पूर्व अवयव प्रमादि है तथा भविष्य अवयव अनंत है ऐसी एक संगरण क्रिया के रूप में क्रीडा करता हुआ कम भी जीव नहीं है, क्योंकि कर्म से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेवशानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है । २ । तीनमदम्प अनुभव से भेदरूप होने पर दुरंत रागरसभरित अध्यवसान संतति भी जीव नहीं है, क्योंकि उसनंतति से भिन्न चैतन्यस्वभावी जीव भेदशानियों द्वारा उपलभ्यमान है । ३। मई पुरानी अवस्थाभेद से प्रवर्तमान नोकर्म भी जीव नहीं है, क्योंकि शरीर से अन्य' पृथक् वतन्य स्वभावीजीव भेदज्ञानियों द्वारा उपलम्पमान है । ४ | ममस्त जगत को पुण्य-पाप रूप से व्याप्त करता हुआ कर्मविपाक भी जीव नहीं है, क्योंकि शुभाशुभ भाव से भिन्न चैतन्यस्वभाबीजीव भेदज्ञानियों द्वारा उपलभ्यमान है । ५। साता असाता रूप से व्याप्त तीमंदभेद वाला कर्मानुभव भी जीव नहीं है, क्योंकि सुख-दुःख से भिन्न चैतन्यस्वमाषी
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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