________________
१-तीनों दर्शन - वेद, ईश्वर, याज्ञिक क्रियाकाण्ड व जातिभेद को नदी स्वीकारते हैं। २- बढ् प्रात्मवाद तथा मात्र सम्बन्धी मान्यता तीनों में लगभग समान है। ३. परिणामवाद को भी नीनों मानते हैं 1
हीनों अपने धर्मप्रवर्तकों को तीर्थकर तथा क्षत्रियकुलोत्पन्न मानते हैं। ५-तीनों वदिक देवी-देवताओं पर विश्वास नहीं करते, बकि वैदिक अचानों पर कटाक्ष करते हैं । ६-तीनों तत्त्वज्ञान, सन्यास और तपश्चरण को प्रधानता देते हैं। वे ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थापेक्षा सन्यास धर्म को महत्व देते हैं । इस तरह जैन, बौद्ध तथा सांख्य को श्रमणधारा में अंतहित किया जाता है।
श्रमणेतर विचारधारा में सभी वैदिक दर्शन तथा चार्वाक आदि मत गभित हैं । वैदिक दर्शन प्राकृतिक जगत् के प्रकट, अप्रकट तथा कम्पित उपादानों में भक्तिमूलक तथा सकाम उपाय भावना को लेकर हो विकसित होता रहा है । पश्चात् उसमें श्रमण संस्कृति की अहिंसा न अध्यात्म के प्रभाव एवं प्रतिस्पर्धा के कारण वेदांत, उपनिषदादि के उदभव से प्राध्यात्मिकता की चर्चा का समावेश झा है। उक्त धारा श्रमण संस्कृति के साथ प्रतिस्पर्धा के कारण प्रभावित एवं परिष्कृत होती रही है। श्रमणधारा के श्राद्य संस्थापक तीर्थंकर ऋषदेव थे जो प्रथम तीर्थंकर थे । उक्त श्रमणधारा के अंतिम उन्नायक चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर थे। महाबीर के बाद बौद्ध, चार्वाक, न्याय,
शेषिक, सांख्य, योग, मीमांसक आदि मतों के संस्थापक प्राचार्य हए । उनका काल महावीर के पश्चात् का उल्लिखित है 11 प्रकृत में श्रमणधारा के मौलिक विशुद्धरूप दिगम्बर जैनदर्गन से सम्बद्ध 'ग्राचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व एवं कतत्व' का अनुशीलन, शोध व खोज प्रस्तुत की जा रही है. अत: श्रमणधारा के इतिहास व दर्शन पर संक्षेप में दृष्टिपात करना समुचित है।
श्रमण संस्कृति का प्रारम्भ प्रादि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से होता है । वे श्रमण संस्कृनि अथवा जैनधर्म के प्राद्य-संस्थापक थे । यह
१. चैनेन्द्र सिद्धान कोष भाग ४, पृ. ४.० २. प्राप्तपरीक्षा, प्राक्कसन पृ. १ ३. संस्कृत साहित्य का इतिहास, डा. बलदेव उपाध्य पृ. ६.. से ६७२ तक।
( six )