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कि अनादिकाल से भारतीय बिचारधारा दो रूपों में विभक्त रही है ।। उनमें एक है श्रमणधारा तथा दूसरी ब्राह्मण - ब्रह्मवादी अथवा श्रमणेतर वारा। श्रमणधारा प्रगतिशील तथा पुरुषार्थवादी है। इसमें आचरण को प्रधानता दी गई है। इसकी उदभूति प्रासाम, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तथा पूर्वी उत्तरप्रदेश में है । इसके जन्मदाता जैन थे। ब्राह्मण धारा परम्परामूलक है । उसका स्वरूप वेदों में है । उसकी उद्भूति पंजाब, पश्चिमी उत्तरप्रदेश में है ।' श्रमणधारा का मौलिक तथा विशुद्ध रूप दिगम्बर जैन धर्म है। ईस्वी प्रथम सदी के सुविख्यात दिगम्बराचार्य कुन्द-कुन्द ने तीर्थकरों के लिए "समण" अर्थात् "श्रमण" शब्द का प्रयोग किया है । उनके ही सुप्रसिद्ध टीकाकार प्राचार्य अमृतचन्द्र ने “समण" पद की व्याख्या करते हुए लिखा है श्रमणाहि महाश्रमणाः सर्वज्ञवीतरागा: ।"3 अर्थात् वास्तव में श्रमण का अर्थ महाश्रमण, सर्वज्ञ तथा बोतराग है । सामान्यतः "श्रमण" शब्द का व्यवहार दिगम्बर जैनदर्शन में निग्रन्थ साधूओं ने लिए होता है। ऐसे साधूनों के स्वरूप का संकेत भी प्राचार्य कुन्दकुन्द ने किया है। वे लिखते हैं कि जो शत्रु व वन्धु वर्ग, मुख-दुःख, प्रशंसा-निंदा, पत्थर और स्वर्ण में समभाव रखता है तथा जीवन-मरण में मध्यस्थ रहता है वह श्रमण है।' श्रमण पद का अन्यत्र यह भी प्रर्थो ग्लेख है कि जो अपन विकारों को नष्ट करने के लिए श्रम कर रहा है वह असम है। जैन पर प्रौर मध पानी है अथवा श्रमण जैन धर्म का प्रतीक है। एक कोशकार ने श्रमण शब्द का अर्थ बौद्ध भिक्षु भी किया है । बौद्धधर्म का श्रमणधारा में अंतर्भाव कुछ साम्यों के अाधार पर किया जाने लगा है। इसी तरह सांख्य मत यद्यपि मूलतः श्रमणेतर पारा के अन्तर्गत आता है । तथापि उस भी किन्हीं दृष्टियों से श्रमणधाराने साम्य देखकर श्रमणधारा के साथ परिगणित किया जाता है । इन तीनों दर्शनों में कुछ साम्यताएं इस प्रकार हैं
१. संस्कृत साहित्य का इतिहाम पृ० ८३-८४ २. पंचालिकाय मुल। गाथा २ तथा १२५ ग्रादि । 4. पचास्तिकाय, समपव्याख्याटीका, गाथा २ ४. प्रवचनसार, मूल गाथा २४२ ५. जनगीता पृ. १४, १५ ६. संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ पृ. ११७५
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