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बात जैन तथा जेनेतर साहित्य, इतिहास एवं पुरातत्व के आधार पर भलीभांति प्रमाणित हो चुकी है। जैनधर्म के सम्बन्ध में प्रचलित अनेक भ्रांतियों का निराकरण अब हो चुका है तथा यह तथ्य भी अब निष्पक्ष विद्वानों द्वारा स्वीकार किया जाने लगा है कि जैनधर्म या श्रमण संस्कृति सनातन, स्वतंत्र, मौलिक तथा मूलत: अध्यात्मवादी दर्शन है । यह किसी दर्शन या संस्कृति की शाखा नहीं है । सिद्धांताचार्य पं कैलाशचन्द्र शास्त्री लिखते हैं कि एक समय था जब जैनधर्म को बौद्धधर्म की शाखा समझ लिया गया था, किन्तु अब वह भ्रांति दूर हो गई तथा नई खोजों के फलस्वरूप यह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्धधर्म से न केवल पृथक और स्वतंत्र धर्म है किन्तु उससे बहुत प्राचीन भी है। अब अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर को जैनधर्म का संस्थापक नहीं माना जाता और उनसे अढाई सौ वर्ष पहले होने वाले भगवान् पार्श्वनाथ को एक ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार कर लिया गया है । इसके पश्चात् कुछ विश्वविख्यात मूर्धन्य विद्वानों ने पार्श्वनाथ को भी जैनधर्म का संस्थापक नहीं माना तथा प्रथम तीर्थकर ऋषदेव को ही जैनधर्म या श्रमणधारा का मुलप्रणेता माना है । इन में डा. हर्मन याकोबी, डॉ. राधाकृष्णन, डॉ. फूहरर तथा विसेन्ट स्मिथ के नाम उल्लेखनीय हैं । डॉ याकोबी का ग्रभिात है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि पार्श्वनाथ जैनधर्म के संस्थापक थे। जैन परम्परा तीर्थकर ऋषभदेव को जैनधर्म का संस्थापक मानने में एकमत है । इस मान्यता में ऐतिहासिक तथ्य को संभावना है । इसी संदर्भ में डॉ. राधाकृष्णन् के विचार तथ्य प्रकाशक एवं महत्त्वपूर्ण है। वे लिखते हैं कि जैन परम्परा ऋषभदेव मे अपने धर्म की उत्पत्ति होने का कथन करती है, जो बहुत शताब्दियों पूर्व हुए हैं । इस बात का प्रमाण उपलब्ध है कि
**There is nothing to prove that parshya was the founder of Jainisni, Jain irudition is unanimous in making Rishabha, the first Tirthankars (as its founder), There may be something historical in lite tradition which makes him the first Tirthankara.
(INDIAN ANTIQUBRY VOL, IX. P. 163.)
जैन धर्म पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री पृ० १ वही, पृ० ९
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