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________________ १४ ] [ आचाय अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृ स्व एवं सचोट की है। वैदिकी हिंसा हिंसा मा भवति" के अनुसार की जाने वाली याज्ञिक हिंसा का श्राचार्य अमृतचन्द्र ने निम्न शब्दों में खण्डन किया है "भगवान् का कहा हुआ धर्म बहुत सूक्ष्म है इसलिए धर्म के निमित्त से हिंसा करने में दोष नहीं है" इस प्रकार धर्म त्रिमूढ़ (भ्रमरूप ) हृदय वाला होकर कभी भी शरीरधारी जीवों को नहीं करना चाहिए।" " पशवः सृष्टाः " की तत्कालीन प्रचलित धार्मिक उक्ति का खंडन करते हुए वे लिखते हैं कि 'निश्चय से धर्म देवों से उत्पन्न होता है, इसलिए इस लोक में उनके लिए सभी कुछ दे देना चाहिए" ऐसी अविवेक से ग्रसित बुद्धि प्राप्त करके शरीरधारी जीवों को नहीं मारना चाहिए। तत्कालीन समाज में व्यापक रूप से व्याप्त धर्म के नाम पर बकरों आदि की बलि की प्रथा का विरोध करते हुए वे लिखते हैं कि पूज्य पुरुषों के निमित्त चकरा आदि जीवों के घात करने में कोई भी दोष नहीं है ऐसा विचार कर अतिथि के लिए जीवों का घात नहीं करना चाहिये। हिंसक की हिंसा, बहुत जीवों की अपेक्षा एक बड़े शरीरधारी जीव की हिंसा, हत्यारे जीवों की दयाबुद्धि से हिंसा, दुखी जीव के दुःख मिटाने के लिए हिंसा, सुखी को मारने से सुखी रहेगा," इस भाव से हिंसा, गुरु की हिन की भावना के कारण हिंसा, खारपटक मत सम्मत हिंसा, (अर्थात् जैसे बड़े में बन्द पक्षी की घड़ा फोड़ने से शीघ्र मुक्ति होती है, उसी प्रकार शरीर में रहने वाले ग्रात्मा की शरीर नाश करने से शीघ्र मुक्ति मानना खारपटिक मत की मान्यता है) कतिपय " धर्मशास्त्रों में वर्णित 'शविदान कथा के अनुसार भूखे के लिए अपने शरीर का मांस देना इत्यादि अनेक प्रकार से प्रचलित तत्कालीन हिंसा पोषक मान्यताओं का अमृतचन्द्राचार्य ने स्पष्ट रूप से सतर्क निराकरण किया और किसी १. सूक्ष्मो भगवद्र्धर्मो धर्मार्थ हंसने न दोयोऽरित । इन धर्ममुहूर्त जानु भूत्वा शरीरिणो हिस्याः ||५६ || पु०मि०३०॥ २. धर्मो हि यः प्रभवति नाभ्यः प्रदेहि सर्व । इति दुवितां न प्राप्य देहिनो हिस्याः ॥ मि० उगा ३. पुज्यनिमित्ताने लागानां न कोऽपि दोषोऽनि इनि सम्प्रधार्य कार्य नातियये सत्वज्ञपनम् ||३१|| पुरुषार्थ मिपाय || ४. संस्कृत मंजरी मा. शि. मण्डल, मध्यप्रदेश भोपाल द्वारा संकलित) पृ० २८ ५. उपयुक्त विभिन्न माताओं के निराकरण हेतु देखिये "पुरुषार्थ निद्धयुपाय पद्य क्रम मे ८६ तक "
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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