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पूर्वकालीन परिस्थितियाँ |
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जीवदया तथा अहिंसा प्रधान जंनधर्म पर आंतरिक तथा बाह्य विद्वेषियों द्वारा भोषण, क्रूर पाशविक अत्याचार एवं दुर्व्यवहार किया गया, फिर भी जैनों ने कभी भी ऐसे अमानवीय कृत्यों का सहारा नहीं लिया। जैनाचार्यों तथा विद्वानों ने निरन्तर अपने अमूल्य, अहिंसामयी आध्यात्मिक आचारों व विचारों से भारतीय संस्कृति एवं जनजीवन को अनुप्राणित किया। आचार्य अमृतचन्द्र के समय तक उपर्युक्त विषम परि स्थितियां वाणिक रोग में व्याप्त हो चुकी थी। इन परिस्थितियों की विकटता अपने चरमोत्कर्ष पर थी। फिर भी आचार्य अमृतचन्द्र ने एक ओर हिसात्मक तथ्यहीन युक्तियों का खण्डन किया और अहिंसामयी अमृत द्वारा उत्पीडित जनमानस को शांति के मार्ग का प्रदर्शन किया; तो दूसरी प्रोर जैनदर्शन व घर्माचार में आगत अनाचार व पतन से जैन आचार तथा विचारों का परिमार्जन एवं संरक्षण भी किया । उनकी कृतियों में तत्कालीन वातावरण तथा उसके निराकरण की झलक पदपद पर दिखाई देती है। उदाहरणार्थ - विभिन्न मतों में परस्पर चलने वाले विरोध को मिटाने के लिए अनेकांत को हो अमोध उपाय बताते हुए वे लिखते हैं – कि जैसे जन्मांध पुरुष हाथी के एक अङ्ग को छूकर उस मङ्ग रूप हाथी का स्वरूप मानते हैं, परन्तु वैसा हाथी का स्वरूप नहीं होता । अतः जन्मांध पुरुषों के हस्तिविधान का निषेध करने वाले, समस्त नयों (सभी दृष्टियों) से प्रकाशित वस्तु स्वरूप के विरोध को मिटाने वाले, उत्कृष्ट जैन सिद्धांत के प्राणरूप अनेकांत को नमस्कार हो ।'
इसी प्रकार तत्कालीन वातावरण में व्याप्त मद्य, मांस, मधु, पाँच प्रकार के उदुम्बर फलों के सेवन को महान् हिंसाकारक सिद्ध करते हुए, उनके त्याग का सर्वप्रथम उपदेश दिया। उनके शब्द इस प्रकार है कि"हिंसा के त्याग के इच्छुक पुरुषों को प्रथम ही प्रयत्नपूर्वक शराब, मांस, मधु (शहद) और पांच उदुम्बर फलों को छोड़ देना चाहिये । उक्त आठों वस्तुओं के सेवन में होने वाली हिंसा की सिद्धि प्राचार्य श्री ने सतर्क
१. परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यंध सिन्धुर विधानम् ।
सकलनयविलसितानां, विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ||२|| पुरुषार्थ सिद्धयुशय २. बड़, पीपरफल पाकर ( गूलर ), कमर तथा कठूमर (फास) के फलों को पंच उदुम्बर कहते हैं। पु० सि० उ० पृ० ६०
२. मद्य मासं क्षौद्र पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन ।
हिंसा व्युपरत कामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ।।६१|| ५० सि० उ