________________
पूर्वकालीन परिस्थितियां ]
कार से हिसा करने का निषेध किया तथा अहिंसा सवा की वष्टि
पाणीमात्र के कल्याण की पवित्रतम भावना द्वारा तत्कालीन समाज, साहित्य एवं युग को अनुप्राणित किया।
उन्होंने प्रकट, विद्यमान जगत् को मिथ्या (भ्रमरूप) मानने वाली मान्यता को प्रसत्य बताते हुए “विद्यमान का निषेध करना प्रथम प्रकार का असत्य है" इस -हेतु द्वारा उक्त मत का निरसन किया है ।' साथ ही अविद्यमान (असत्) वस्तु को स्थापना को द्वितीय प्रकार का असत्य, वस्तु को अन्यरूप से कहने को ती मरे प्रकार का असत्य, गहित (निंदनीक), साबध (हिंसापोषक), अप्रिय वचन कहने को चौथे प्रकार का असत्य बताकर असत्य वचनों के चार प्रकार के भेदों द्वारा समस्त प्रकार के असत्य पोषक कथनों का परिहार क्रिया और सत्यधर्म की स्थापना, प्रचार व प्रसार किया। असत्य की तरह, परधन हरणरूप चोरी, मैथन रूप अब्रह्म (कुशील) सेवन, तथा परवस्तु में मूच्रू प भाव (परिग्रह) के सेवन को हिसारूप बताकर उनका भी निषेध किया । उन्होंने झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह को भी हिंसा के ही भेद बताया क्योंकि वे सभी प्रात्मा के शुद्धोपयोग रूप परिणामों के घातक हैं । अतः पांचों पापों को हिंसामयी निरूपित करते हुए कहा कि पत्रि भेद तो केवल शिष्यों को समझाने के लिए किये गए हैं।
___इस तरह प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अहिंसा के आलोक में हिंसा का सर्वप्रकार से उत्थापन करके, अहिंसामयी अध्यात्म रस की शीतल-शांत एवं सुखमयी वर्षा द्वारा सन्तप्त आत्माओं को शांति व राहत उपलब्ध कराई | साथ हो तत्कालीन प्रदूषण, दबाव, भय तथा भ्रम के वातावरण में वे दिनकर सदृश उदित हुए और शनैः-शनैः उन्होंने अपने प्रखर व्यक्तित्व तथा असाधारण कृतियों द्वारा समाज, साहित्य, धर्म तथा देश को आलोकित और प्रभावित किया ।
----
-
-
१. पुरुषार्थ मिद्धयुपाय, पद्य १२
२. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, 'पद्य ६३ ३. वही, गद्य ६४
४. बही, पद्य ६५ ५. वही, पद्य १०३, १०७. १११ ६. प्रात्मपरिणाम हिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिसतत् ।
अन्नबचनादि केवल गुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥४२॥ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ।।