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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
शून्योऽपि निर्भर मृतोऽसि मृतोऽपि
चान्यशून्योऽन्यशून्य विभवोऽप्यसि नेकपूर्णः । त्वं नेकपूर्ण महिमागि सदैक एव कः ज्ञानलेति चरितं
तव
मातुमिष्टे || १
शरीर के स्तवन से
उनके समयमा कलश में एक स्थल पर आत्मा का स्तवन क्यों संभव नहीं है - इसके उत्तर में दृष्टि रूप में जो दो काव्य रजे हैं वे उलमकाव्य को दृष्टि से बेजोड़ हैं तथा उत्प्रेक्षा अलंकार के सुन्दर उदाहरण है, यथा
उन्होंने दृष्टांत तथा
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प्राकारकवलितांवरमुपवनराजी निगोर्ण भूमितलम् । पिवतीहि नगरमिदं परिखाबलयेन पातालम् ।। * नित्यम विकार सुस्थित सर्वागमपूर्ण सहज लावण्यम् । अशोभमिव समुद्र जिनेन्द्ररूपं परं जयति ॥ ३ उन्होंने अपनी अलंकार शैली का कौशल टीकांत में प्रदर्शित किया है । वहाँ उन्होंने एक साथ लुप्तोपमा, रूपक, व्यतिरेक तथा अनुप्रास अलंकारों का मनोहारि प्रयोग किया है। वह पद्य इस प्रकार हैं
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१. लघुतम्बस्फोट पद्य क्रमांक १० अध्याय प्रथम ।
श्र (ह शीतलनाथ जिनेन्द्र श्राप कामकोणादि समस्त विकारों से शून्य होकर भी, ज्ञानदर्शनादि गुणों से प्रतिशव पूर्ण हो, स्वधीय गुणों से परिपूर्ण होकर भी अन्यद्रव्य के गुण पर्यायों से अन्यद्रव्यों में शून्य विभव होकर भी ज्ञाता को प्राप्त हुए अनेक परिपूर्ण हो, अनेक प्रतियों से परिपूर्ण होकर भी सदा एत्र हो हो. समर्थ ? अर्थात् कोई नहीं ।
शून्य हो, यों से ऐसे आपके चरित को जानने
२. समयमा कलश, क्रमांक २५
अर्थः- यह नगर ऐसा है कि जिसने अपने कोट के द्वारा आकाश को मानो ग्रसित कर रखा है ( अर्थात् कोट बहुत ऊंचा है) बगीचों की पंक्तियों से जिसने भुमितल को मानो निगल लिया है (कर्थात् चारों और बगीचों से पृथ्वी ढक गई है), और कोट के चारों ओर की खाई के घेरे से मानों पाताल को पी रहा है (अर्थात् खाई बहुत गहरी है) ।"
३. वही, कलश क्रमांक ३६ - भगवान जिनेन्द्र का उत्कृष्ट रूप क्षोभरहिल, गंभीर समुद्र के समान है, विकार रहित तथा सुस्क्षित है, जिसमें यपूर्व तथा स्वाभाविक लावण्य है, ऐसा रूप जयवंत वर्ती ।
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