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ध्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
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अविचलितचिदात्मन्यात्मनात्मानमात्म
न्यनबरतनिमग्न धार यद् ध्वस्तमोहम् । उदिनममृतचन्द्रज्योतिरेतत्समंता
जज्वलतु विमलपूर्ण निःसपत्नस्वभावम् !' उक्त पद्य में प्रथम चरण में आत्मनि, प्रात्मना, आत्मनं, आत्मन् में तथा द्वितीय चरण में घारयल-ध्वस्तमोहम् आदि पदों में अनप्रास अलंकार प्रयुक्त है। तथा अमृतचन्द्रज्योति: पद मे आत्मा की अमृतचन्द्रसमान कहा है" यहां समान पद वाचा "वत्" पद का लोप होने से लुप्तोपमा अलंकार प्रकट होता है। यदि "वत्" अर्थ न करके मात्र अमृतचन्द्ररूपज्योति अर्थ किया जाय तो भेदरूपक अलंकार सिद्ध होता है। प्रात्मा को अमृतमय चन्द्रमा के समान कहने पर भी, ध्वस्तमोहः विमलपूर्ण तथा निःसपत्नस्वभाव विशेषणों द्वारा चन्द्रमा के साथ व्यतिरेक भी सिद्ध होता है क्योंकि ध्वस्तमोह विशेषण अज्ञानरूप अघंकार का दूर होना बतलाता है, विमलपूर्ण विशेषण लांछनरहितता को बताता है और निःसपत्नस्वभाव द्वारा चन्द्रमा की भांति राह से ग्रसित अथवा मेघाच्छादित होने का निषेध बताया गया है इस तरह समास परिवर्तन के द्वारा अमृतचन्द्रज्योति के अन्य अनेक अर्थ संभव हैं । २ अलंकारों की सविस्तार चर्चा पागे यथास्थान की जायेगी अतः यहां हम अलंकार के अंतिम उदाहरण के रूप में अतिसुन्दर, सुगम तथा सुबोध कारणमाला नामक अलंकार प्रस्तुत करते हैं। पुरुषार्थ सिद्धयपाय में मद्य के दोष को बताते हुए वे उक्त अलंकार का प्रयोग करते हैं :-यथा
मद्य मोहमति मनों, मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् 1 विस्मृतधर्माजीवो हिंसाम विशंकमाचरति ।। ६२ ॥
१. समयसार कलश २७६, अर्श्व - अकम्पबैतन्य स्वरूप प्रात्मा में, अपने पुरुषार्थ से
ही निरन्तर मग्न हुई मोहांधकार को नष्ट करने वाली, स्वच्छ तथा परिपूर्ण, रागादि विरोधी भावों से रहित, उदय को प्राप्त हुई मह अमृतमयी चन्द्र
समान अात्मज्योति सदा प्रकाशमान रहो । २, समयसार. परिशिष्ट, पृष्ठ ६०१ सोनगढ़, १९६४ ३. अर्थ - मदिरा मन को मोहित करती है, माहितचित्तपुरुष तो धर्म को भूल
जाता है, धर्म को भूला हुमा जीव निःशंक होकर हिसा वा प्राचरण करता है।" देखो, पुरुषार्थसिद्धयुपाय पद्य नं. ६२ ।