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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
इस प्रकार छन्द, रस, अलंकारों का समुचित प्रयोग, काव्योचित अनेक गुणों का समावेश, भावानुकुल अर्थगरिमायुक्त भाषा तथा अध्यात्मरस से परिपूर्ण पद्य रचना से अमृत चन्द्र का व्यक्तित्व निश्चित रूप से एक सफलतम, प्रतिभाशाली, अद्वितीय तथा उच्चकोटि के काव्यकार के रूप में प्रस्फुटित होना है। विद्वान अध्येता उनके काव्य को नाटक काव्य, अनुपमकाव्य तथा लयात्मक काव्य की संज्ञा देते हैं, उन्हें निर्दोष काव्य प्रणेता तथा संस्कृत में लयात्मक काव्य का आद्य आविष्कर्ता मानते हैं । उन्होंने जितना कौशल गद्यकार की रचना में प्रदर्शित किया, उससे कही अधिक सिद्धि एवं प्रसिद्धि पद्य काग के प्रणयन में प्राप्त की है। तत्त्वार्थसार नामक विशाल महत्वपूर्ण ग्रन्थ उनको असाधारण पद्य काव्य प्रणयन शक्ति का प्रतीक है। गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों नथा भावों को और उनपर रचित श्लोकबातिक, राजवातित्रा आदि भाष्यों को अपने अंतर्मुखी व्यक्तित्व में समाहित करके कविता- तरंगिणी के माध्यम से प्रवाहित किया है। उनको उपलब्ध पद्यरचनाएं उनके उच्चकोटि के काव्यकार होने का प्रमाण हैं। उनकी अंतिम कृति लघुतत्त्वाकोट: मैं उनके नहानांविनका उत्कर्ष एवं पूटन देखकर उनका पकवीन्द्र" पद सार्थक प्रतीत होता है। इस तरह अमतचन्द्र निस्संदेह सफल पद्य काव्यकार के रूप में अपनी कृतियों में प्रकार होते हैं।
प्राचार्य प्रमत्तवन्द्र चम्पूकाव्यकार - आचार्य अमृत चन्द्र जितने प्रौढ़ गद्यकाव्यकार तथा पद्यकाव्यकार हैं, उतने ही कुशल वे चम्पूकाव्यकार भी हैं । समयसार पर उनकी आत्मख्याति दीका तथा उसमें बीच बीच में आगत पद्य उनकी चम्पूकाव्य शैली का उदाहरण है। काव्यलक्षणकारों ने "गद्य तथा पद्य मय रचना को चम्पूकाव्य कहा है" यथा - गद्यपद्यमयंकाव्यं चम्पूरित्यभिधीयते ।" इस तरह उक्त परिभाषा के अनुसार आत्मख्याति टीका चम्पूकाव्यशैली में लिखी गई कृति प्रतीत होती है। उसमें दार्शनिक व्याख्याएं गद्य में तथा भावोत्कर्ष पद्य में अभिव्यक्त पाते हैं। उदाहरण के रूप में एक स्थल पर ज्ञानी पुरुषों का त्याग (प्रत्याख्यान), स्वभाव तथा परभाव का भेदज्ञान होने पर, सहज ही हो जाता है। इस
१. निजामृतपान (समयसारकलशों का पद्यानुवाद) प्रथम पृष्ठ घ, ङ, च २, संस्कृत साहित्य का इतिहास, डॉ. बलदेव प्रसाद उपाध्याय, पृष्ठ ४१४