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________________ व्यक्तित्व तथा प्रभाव ] [ १११ भिप्राय की विवेचना वे सरल, सालंकृत गद्य तथा सरस पद्य में करते लिए लिखते हैं: "यथा हि कश्चित्पुरुषः सभ्रांत्या रजकात्परकीय चीवरमादायाया परि अयन स्वामी राशत्वेन तदंचलमालव्य लागुनी क्रियमाणों मंक्षु, प्रतिबुध्यस्वार्णय परिवर्तितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यवाक्यं श्रृण्वन्नखिलं रिचन्दैः सुष्ठु परीक्षा विदितमेतत् नरकीयमिति ज्ञात्वा खानी सम्मुन्वति तच्चोवरम चिरात् तथा ज्ञातापि संभ्रांत्या परको यान्भावामादायात्मीयप्रतिपायात्मन्यध्यास्य पानः स्वयमज्ञानी सन् गुरुणा परभाविवेक कुकी क्रियमाणो मंक्ष प्रतिबुध्यस्वकः खल्वयमात्मेत्यसकृच्छ्रात सावधं श्रण्वन्नखिलं विचन्हैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेते परभावा इति ज्ञात्वा यानी सन् मुन्वति सर्वान्परभातानचिरात् । मालिनी छंद: -; - वतरति न यावद् वृत्तिमत्यत्यंत वेगादनवमपरभावत्यागदृष्टांतदृष्टिः । टिति सकलभावेरन्यदीयविमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविवभूव ॥ २९॥१ आत्मरूपातिकलशटीका (गाथा ३५ की टीका ) "जैसे कोई पुरुष धोबी के घर से भ्रमवश दुसरे का वस्त्र लाकर उसे अपना समझकर बोड़कर सो रहा है, और अपने बाप ही अज्ञानी (यह वस्त्र पराया है ऐसे ज्ञान से रहित ) हो रहा है । किन्तु जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्र का छोर पकड़कर खीचता है और उसे नग्न कर कहता है कि "तू शीघ्र जाग, सावधान हो। यह मेरा वस्त्र बदले में ा गया है, यह मेरा है सां मुझे दे दे, (तब बारम्बार कहे गये इस वाक्य को सुनता हुआ वह ( उस वस्त्र की) सर्व चिन्हों से भलीभांति परीक्षा करके ' "प्रवश्यं यह वस्त्र दूसरे का ही है" ऐसा जानकर ज्ञानी होता हुआ, उस वस्त्र को शीघ्र हो त्याग देता है। इसी प्रकार ज्ञाता भी भ्रमवश परद्रव्य के भावों को ग्रहण करके उन्हें अपना जानकर अपने में एक रूप करके सो रहा है और अपने आप अज्ञानी हो रहा है। जब श्री गुरु परभाव का विवेक (भेदज्ञान ) करके उसे एक आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि "तू जाग, सावधान हो, यह तेरा श्रात्मा वास्तव में एक (ज्ञानमात्र) ही है, तब बारम्बार कहे गये इस श्रागम वाक्य को सुनता हुआ वह (स्वपर के ) समस्त चिन्हों से भलीभांति परीक्षा करके "अवश्य यह परभाव ही है, ( में एक ज्ञान मात्र ही हैं) यह जानकर, ज्ञानी होता हुआ, सर्व परभावों को तत्काल छोड़ देता है । मालिनी छंद का अर्थ - "यह परभाव के त्याग के दृष्टांत की दृष्टि रूप यह तब तक तत्काल ही परद्रव्यों के सकल प्रकट हो जाती है ।" २६ ॥ वृत्ति जबतक वेगपूर्वक पुरानी न हो भावों से रहित यह श्रात्मानुभूति स्वयं
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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