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। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुत्व । अब स्वभावोक्ति प्रलंकार का सहजरूप प्रस्तुत किया जाता है :
नित्यमविफारसुस्थितसर्वागमपूर्व सहजलावण्यम् ।
प्रक्षोभमिव समुद्र जिनेन्द्ररूपं परं जयति ।।'
"अर्थात् जो सर्वांग रूप से प्रविकार तथा सुस्थित है, अपूर्व और स्वाभाविक लावण्य रूप है तथा समुद्र की भांति क्षोभ रहित है, ऐसा जिनेन्द्र का रूप उत्कृष्टतया जयवन्त वर्तता है। यहां जिनेन्द्र के सहज रूप का स्वाभाविक वर्णन होने से स्वभावोक्ति अलंकार है, साथ ही 'अक्षोभमिय" पद में उपमालंकार भी है । इस प्रकार स्वभावोषित तथा उपमा अलंकार का सुन्दर सम्मिश्रण उक्त पद्य में विद्यमान है । ऐसा हो स्वभावोक्ति तथा उपमा का एक उदाहरण और प्रस्तुत हैं। इससे सिद्धात्मा या मुक्त परमात्मा का सहज स्वरूप वणित है । यथा
नित्यमपि निरूपनेप: स्वरूप समवस्थितो निरुपत्रातः ।
गगनमिव परमपुरुषः परमपदे स्फुरति विशदतमः ।। प्राने विकोपोक्ति भार का हरण दिया जाता है :--
जिससे समस्त प्रसिद्ध कारणों के सद्भाव में भी उनके फल या कार्य का असाव दर्शाया हो वहीं विशेषोक्ति अलंकार होता है। यहां दो पद्यों द्वारा यह विशेष कथन किया है कि सम्यग्दगिट ज्ञान या बंराग्य की सामर्थ्य के कारण कर्मों को भोगता हया भी कर्मो से नहीं बंधता, जबकि कर्मों का भोग रूप बंध का कारण मौजूद है। इसी तरह विषय सेवन करता हश्रा भी ज्ञानी उसके फल को नहीं भोगता। उसे, विषय सेवक होने पर भी प्रसेवक कहा है । लेखक के मूल पद्य इस प्रकार हैं :
तज्ज्ञानस्यव सामर्थ्य विरागस्यैव वा किल। यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुजानोऽपि न बध्यते।। नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत्, स्वं फल विषय सेवनस्य ना ।
ज्ञानवैभव विरागता बलात्, सेवकोऽपि तदसावसेवकः ।। इसी प्रकार मद्य टीका में भी विशेषोषित का प्रयोग किया गया है।
१. समयसारकलश पद्य क. २६. २. पु. सि. पद्य २२३. ३. काव्यप्रकाण, दशम उल्लास, पृ. ३६१. ४, समयसार कलश, पछ क्र. १३४, १३५, ५. समयसार गा. १६५ तथा १६६ की टीका देखिये ।