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[ आचार्य अमृतचन्द्र ; व्यक्तित्व एवं कर्तृत्त्व बोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसार: । (५), गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयनचक्रसम्वाराः । (५८). न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः । (८५). नित्यमदत्तं परित्याज्यम् । (१०६). मूळ तु ममत्व रिणामः । (१११), त्यक्तध्या रात्रि भुक्तिरपि । (१२६), कर्तव्योऽवश्व भतिथये भागः । (१७६), शिथिलिन लोभो भवत्यहिसेव। (१.५४), मोक्षोपायो, न बन्धनोपायः । (२११)
ये सूक्तियाँ अपने में जैनधर्म का मर्म, अर्थ गौरव तथा दार्शनिकतार्किक महत्त्व समाहित किये हुए हैं। प्राचार्य अमृतचन्द्र का पद्यसाहित्य जहाँ एक ओर गम्भीर दार्शनिकता, सिद्धांतधिज्ञता तथा अध्यात्मरसिकाता से व्याप्त है, वहीं दूसरी और उसमें अलंकारों की आकर्ष झिलमिलाहट, काव्यसौन्दर्य का चरमोत्मापं तथा उनके विशाल व्यक्तित्व की छाप भी विद्यमान है।
उनकी कवित्वशक्ति का उत्कर्ष एवं काय को प्रौढ़ता का सर्व श्रेष्ठ उदाहरण उनके द्वारा रचित 'लधुतस्वस्फोट नामकः'' स्तोत्रकाव्य है। इसमें विभिन्न छन्दों में २५ अध्यायों में जनदर्शन कर परसगम्भीर सागर लहराता हुआ प्रदर्शित किया गया है। इसके प्रथम अध्याय में क्लिष्टतम परन्तु सालंकृत काव्यमा उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है। २४ तीर्थङ्करों को वन्दना २४ पद्यों में की गई है। प्रत्येक पद्य अपने पाप में अद्वितीय पार्योर्म, अनुप्रासारमा रोगी तथा चाममा को संजोये हुए है। वहाँ कविता कामिनी का सर्वश्रेष्ठ सौन्दर्य अभिव्यक्त हना है अथवा सरस्वती स्वयं विभिन्न अलंकारों के बीच साकार हो उठी है। उदाहरण के लिए द्वितीय तीर्थङ्कर अजितनाथ की स्तुति करते हुए थे। बसंततिलका छन्द में लिखते हैं--- माताऽसि मानमसि मेयमसी शिमासि
मानस्य चासि फल मित्यजितासि सर्वम् । . नास्येव कि चिदुत नारि तथापि
किञ्चिदस्येव चिच्चकचकायितचचुरूपनः ।।२।।
..----- १. पुरुषार्थसिद्धमुपाय के उपयुक्त सूक्तिसम्मुख अंकित पद्य क्रमांक । २. लघुतत्त्वस्फोटः, अध्याय १, पद्य नं. २