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पक्तित्व तथा प्रभाव ]
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रूप शप्ति क्रिया में करने रूप करोति क्रिया नहीं होती तथा करोति क्रिया में ज्ञप्ति क्रिया नहीं होती, अतः सिद्ध होता है कि जो ज्ञाता है कर्ता नहीं है । इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र जिस बात की अतिथि करते हैं, तदर्थ जो तर्क प्रस्तुत करते हैं तथा प्रस्तुतीकरण हेतु जिस प्रकार को शब्द संरचना करते हैं उससे उनके असाधारण व्यकार का रूप साकार हो उठता है। उनके द्वारा प्रयुक्त २५ प्रकार सुन्दर उपमा उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, दृष्टांत, यमक, रूपक आदि अनेक कर प्रसाद, माधुर्य, ओज गुणों का प्रस्फुटन, विभिन्न रसों का यावसर परिपाक, पदलालित्य, स्वरलहरी, वाणी का अद्भुत बिलास प्रत्यादि से उनका लोकोत्तर व्यक्तित्व, प्रतिभाशाली कवित्व तथा अद्वितीय कृतित्त्व सहज ही प्रगट हो जाता है ।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय उनकी २२६ आर्या छन्दों में प्रसादगुणमयी एक तन्त्र रचना है, जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा हिंसा का अनूठा वर्णन है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ जैनाचार विषयक पिम्परों में श्रेष्ठ कोहनूर है। इसमें श्रावकों के आचार का विशेष तथा सुनि आचार का संक्षिप्त दिग्दर्शन हुआ है। इसमें प्रयुक्त सूक्तियां जैनागम के सारसूत्र की भांति गम्भीर अर्थ को समाहित किये हैं । प्रत्येक सूक्तियां में गम्भीर सिद्धांत घोषित किया गया। उदाहरण स्वरूप कुछ सूक्तियां इस प्रकार है :- " भवति मुनीनाममौकिकी वृत्तिः" (१६) कार्य विशेषो हिकारण विशेषात् । (१२२), विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् । (२), व्यवहार निश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् । ( ४ ) भूतार्थ
रथोद्धताछंद - यः करोतिस करोति केवलं यस्तुचेति स तु वेत्ति केवलम् । यः करोति न हि वेत्तिस क्वचित्, यस्तुवेति न करोति स क्वचित् ॥ इन्द्राद-ज्ञप्तिः करोत न हि भासतेऽन्तः, ज्ञप्ती करोतिश्च न भासतेऽन्तः ॥ ज्ञप्तिः करोतिश्च तो विभिन्ने ज्ञाता न कर्मेति ततः स्थितं च ॥ समयगार कलश, क्रमांक ६६ तथा ६७
उपजाति, वसंततिलका, पृथ्वा आर्या,
श्रनुष्य मालिनी, शार्दूलविक्रीडि स्वागता, शालिनी, मन्द्राकांता, वारा, उपेन्द्रवज्रा रथोद्धता, इन्द्रवज्जा,
तविलम्बित, शिखरणी, नाटक, वंशस्थ, वियोगिनी, मन्जुभाषिणी, तोटक, पुष्पताग्रा, प्रहर्षिणी, मत्तमयूर, हरिणी इन २५ प्रकार के पद्य का प्रयोग हुआ है ।