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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व यः परिणमति स कर्ता, यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परणति क्रिया सा त्रयमपि भिन्न न वस्तुतया ।। १ नेकस्य हि कारो द्वी स्तो व कर्मणी न चैकस्य । नकस्य च क्रिये व एकमनेक यतो न स्यात् ॥'
अर्थगांभीर्य के साथ साथ जहां वे दृष्टांत प्रस्तुत कर निरूपित विषय को सरल एवं सुबोध बना देते हैं, वहीं वे अपनी अनोखी तर्कशक्ति तथा सालंकृत पद्य भी प्रस्तुत करने की असाधारण क्षमता रखते हैं। एक स्थल पर वे वर्णादिक जीव के कहे जाने पर भो जीव के नहीं हैं, इस कथन की सिद्धि हेतु लिखते हैं :
घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भोघृतमयो म चेत् । जीवो वर्णादिमज्जीव जल्पनेऽपि न तन्मयः ।।
जिस प्रकार घृतकुम्भ (घी का घड़ा) कथन किये जाने पर भी घड़ा धीमय नहीं है उसी प्रकार "वर्णादिमान जीव है" ऐसा कथन किये जाने पर भी जीव वर्णादिरूप नहीं हैं। इसी अभिप्राय की सिद्धि हेतु वे दृष्टांतमयी सालंकृत शैली में सुन्दर तर्क प्रस्तुत करते हैं, जिससे कथन भली भांति स्पष्ट एवं सिद्ध हो जाता है । यथा---
निर्वय॑ते येन यदत्र किचित्, तदेव तस्यान्न कथंचनान्यत् । रूपमेण निर्वृत्तमिहासिकोरां, पश्यन्ति रूक्मं न कथंचनासिम् ।
प्रति जिस वस्तु से जो भाव बने, वह भाव वह वस्तु ही है किसी भी प्रकार अन्य वस्तु नहीं है। जैसे जगत् में स्वर्णनिमित स्थान को लोग स्वर्ण ही देखते हैं, किसी प्रकार से तलवार नहीं देखते हैं। अन्यत्र इसी प्रकार तर्कप्रधान शैली में रथोद्धता तथा इन्द्रवज्रा दो पद्यों में लिखा है कि जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं तथा जो कर्ता है वह ज्ञाता नहीं। जानने
१. समयमार लश ५१ (''जो परि गामित होता है सो कर्ता, जो (परिरमित होने
वाले का) परिग़ाम है वह कर्म है और जो परणति है वह क्रिया है, ये तीनों
(मर्ती, कर्म एवं किया) वस्तुरूप से भिन्न नहीं है।") । २. सवयपार नानमा ५४ ("एक द्रव्य के दो कत्ती नहीं होते, एक Fध्य के दो कर्भ
नहीं होते तथा एक द्रव्य को दो क्रियाएँ नहीं होती क्योंकि एक द्रब्य अनेक द्रव्य
रूप नहीं होता।") ३. समयसार कलश, ४०
४, वही, कलश क्रमांक ३८