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व्यक्तिस्व तथा प्रभाव ]
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२. उक्त साक्षात अमत को पीने हेतु ज्ञान सिन्ध, शांतरस परिपूर्ण निज भी भगवान् प्रात्मा में निमग्न होने की प्रेरणा वसंततिलका छैद' हा निम्न पञ्च में की गई है :
मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छति शनि रसे समस्ताः । *. आपलाध्य विभ्रम तिरस्करिणी भरेण, प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिंघ ।।'
उत्ता प्रेरणा के साथ-साथ, पदलालित्य की भी छटा दर्शनीय है। यहाँ दुतविलंबित छंद में ज्ञानकला द्वारा मुलभ निजपद को कर्मों द्वारा नहीं अपितु शुद्धात्मा के अनुभव की कला द्वारा प्राप्त करने हेतु निरन्तर अभ्याम करने की प्रेरणा दी गई है । यथा :---
पदमिदं नन कर्मदुरासद, सहजबोधकला सुलभं किल । तत इदं निजबोधकलाबलात् कलयितुं यततां सततं जगत् ।।*
यद्यपि समयसार कलशों में कई स्थलों पर पुनरूक्ति पाई जाती है। तथापि अध्यात्म में पुनरुक्ति को दोषाधायक नहीं माना जाता है क्योंकि अनादि काल से संसार के जीव अध्यात्म से दूर रहे हैं अत: उन का पान प्रध्यात्म की ओर आकर्षित कराने के लिए कलशों में भिन्न-भिन्न प्रकारों से कथन किया गया है ।
एक ही कालश में अनेक परिभाषाएं तथा गम्भीर सिद्धांत प्ररूपणा करने की असाधारण कवित्व शक्ति अमृतचन्द्र में है। इसे हम सूत्र रूपेग कथन शैली अथवा अर्थगांभीर्यमयी शैली कह सकते हैं। उनके अथंगांभीर्य का नमूना निम्न पद्य में निहित है :--
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१. समयमार कलश, त्रमांक ३२ २. समयसार कलश, क्रमांक १४३ ३. एकस्म बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षापातौ ।
यस्तत्ववेदी च्युत पक्षपाततस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ।। कलश १७० इसी प्रकार उपरोक्त पद्य के प्रथम चरण के द्वितीय शब्द 'बो' के स्थान पर क्रमप्राः मुढो, रक्तो, दुष्टो, कर्ता, भोता, जीवो, सूक्ष्मो, हेतुः, कार्य, एको. भावो, शांती, नित्यो, वाच्यो, नाना, चैत्यो, दृश्यो, वेद्यो व भातो पदपरिवर्तन करके शेषांश पूर्ववत् हो रखा है और इस की पुनरावृत्ति ७० से ८६ वं कलश तक पाई जाती है। इसी प्रकार पद्य क्रमांक ६४ एवं ६५ में भी कुछ शब्दों के
परिवर्तन के साथ अधिकांश शब्द पुनरुक्त हैं । ४. अध्यात्म अमृत कलश, पं. जगमोहनलाल शास्त्री, पृष्ठ २६