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कृतियां ]
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साथ ही सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है तथापि उसकी पृथक् आराधना करना उचित है, कारण कि दोनों में कारण-कार्य रूप लक्षण भेद से भिन्नता संभव है। सम्यग्दर्शन कारण तथा सम्यग्ज्ञान कार्य होने से सम्यक्त्व के बाद ही सम्यग्ज्ञान की प्राराधना करना लिखा है। कारण और कार्य का एककाल होने पर भी दीपक और प्रकाश की भांति सम्यग्दर्शन तथा साशाज्ञान में काना-कागने की विधि सघषित होती है। यहां सम्यग्ज्ञान का लक्षण भी लिखा है कि प्रशस्त अनेकान्तात्मक स्वभाव वाले पदार्थों का संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय रहित निर्णय करना चाहिये । वह सम्यग्ज्ञान आत्मस्वरूप ही है। इस सम्यग्ज्ञान के भी आठ अंग कहे हैं जो क्रमशः व्यंजनाचार, अर्थाचार, कालाचार, विनयाचार, उपधानाचार, बहुमानाचार तथा प्रनिह्नवाचार नाम से कहे गये हैं।' सम्यक्चारित्र अधिकार -
पुरुषार्थ सिद्ध युपाय का चौथा विभाग सम्यवचारित्र का निरूपक है। इसमें श्रावकों के आचरण व नियमों का विशम् विवेचन है । अमृतचन्द्र ने प्रारम्भ में ही लिखा है कि दर्शनमोह के नाश होने अर्थात सम्यग्ज्ञान से तत्त्वार्थों को भलीभांति जान लेने पर हमेशा दृढ़ चित्तवाले पुरुषों को सम्यक्चारित्र का अवलम्बन करना चाहिये क्योंकि अज्ञान सहित चारित्र सम्यक्चारित्र नाम नहीं पाता, इसलिए सम्यग्ज्ञान के बाद ही सभ्यश्चारित्र की आराधना करना कहा गया है।' सम्यवचारित्र का स्वरूप इस प्रकार वर्णित है कि समस्त पापयक्त मन-वचन-शाय के योग के त्याग से चारित्र होता है जो संपूर्ण कषाय रहित, निर्मल, विरक्तता सहित और आत्मस्वरूप होता है। तत्पश्चात् चारित्र के देश-चारित्र तथा सवाल-चारित्र ये दो भेद किये हैं। उनमें सर्वथा सर्वदेश त्याग में लीन मुनि शुद्धोपयोगस्वरूप में प्राचरण करने वाला होता है तथा एकदेश त्याग में लगा हुआ श्रावक होता है । एकदेश चारित्र के अंतर्गत हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह इन ५ पापों का सूक्ष्म तथा सविस्तार विवेचन किया मया है। इन सभी का स्पष्ट परिचय आगे सातवें अध्याय में किया गया है। प्राचार्य अमृत चन्द्र ने अहिंसा तथा हिंसा का लक्षण बहुत ही मामिक एवं सूत्ररूप में निरूपित
१. पुरुषाथ सिद्ध युपाय, पद्य क्रमांक ३१ से ३६ तक २. वही, पद्य क्रमांक ३७,३८ ३. वहीं, पद्य क्रमांक ३६