SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ । | प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्त त्व इन तीनों में सर्वप्रथम श्रावन को सम्यक्त्व की ही साधना भलीभांति, समस्त प्रयत्नों द्वारा करनी चाहिये क्योकि सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान तथा चारित्र सच्चे होते हैं। यहां सम्यग्दर्शन का स्वरूप निरूपित करते हुए लिखा है कि जीव अजीव प्रादि तत्त्वार्थों का, विपरीत अभिप्राय से रहित श्रद्धान निरन्तर करना चाहिये । वह श्रद्धान आत्मस्वरूप ही है।' सम्यग्दर्शन के संरक्षणार्थ तथा परिशोषणार्थ निकांक्षित, निविचिकित्सा, अमूहदष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य तथा प्रभावना इन आठ अंगों का सेवन करना आवश्यक है। इन पाठ अंगों के संक्षेप में लक्षण इस प्रकार हैं - सर्वज्ञकथित, अनेकांतस्वरूा बस्तु-स्वभाव में शंका नहीं करना निकित अंग है। इस लोक की सम्पदा. प्रादि, परलोक की चक्रवर्ती, नारायण आदि पदों की अभिलाषा तथा एकांतवादी मतों की आकांक्षा का त्याग करना निकांक्षित अग है। भुख, प्यास, सर्दी, गर्मी पादि नाना प्रकार के भावों में, मलमुत्रादि से संपर्क होने में ग्लानि न करना निविचिकित्सा अंग है । जगत् के मिथ्या शास्त्रों, मिथ्यातत्त्वों, मिथ्या-देवताओं में श्रद्धा नहीं करना तथा तत्वरुचि रखना अमुष्टि है । मार्दव आदि भावनाओं से हमेशा प्रात्मा के शुद्धस्वरूप की वृद्धि करना तथा दूसरों के दोषों को गुल्ल रखना उपगृहन अंग है । काम, क्रोध, मद आदि के कारण न्यायमार्ग से विचलित होने वाले अपनी तथा पर की यक्तिपूर्वक स्थिरता करना स्थितिकरण है । मोक्षसुख सम्पदा के कारणभूत धर्म - अहिंसा में तथा सभी साधर्मीजनों में हमेशा उत्कृष्ट वात्सल्य भाव धारण करना वात्सल्य अंग है। रत्नत्रय के तेज से अपनी आत्मा को प्रभावित करना तथा दान, तप, जिनपूजनादि और विद्या के अतिशय द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करना प्रभावना है। इस प्रकार आठ अंगों के निरूपण सहित उक्त अधिकार समाप्त होता है । सम्यग्ज्ञान अधिकार - तृतीय विभाग सम्यग्ज्ञान अधिकार में सम्यक्त्व के धारक पुरुषों को हमेशा जिनागम की परम्परा, युक्ति अर्थात् प्रमाण तथा नय से विचार करके प्रयत्नपूर्वक सम्यग्ज्ञान का सेवन करना कत्तव्य निरूपित किया है । यह भी स्पष्ट किया है कि यद्यपि सम्यग्दर्शन के १. पुरुषार्य सिद्ध युषाम, पद्य क्रमांक २०, २१, २२, २. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य क्रमांक २० से ३० तक।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy