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________________ कृतियाँ । | २२५ करते हैं, परन्तु जो जीव मात्र व्यवहार को ही जानता है, उसको व्यवहार का उपदेश नहीं है। वास्तव में समग्र देशना का सार या रहस्य उसे हो प्राप्त होता है जो निश्चय-व्यवहार को यथार्थ समझकर नयपक्ष को छोड़कर मध्यस्थ होता है।' - इसके बाद ग्रन्थ में प्रतिपाद्य विषय का प्रारम्भ होता है । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि से रहित, गुण-पर्याय सहित तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त चैतन्य प्रात्मा ही पुरुष कहलाता है। अपने रागादि विकारी परिणामों का कर्ता और भोक्ता स्वयं अज्ञानी आत्मा ही होता है, परन्तु जब आत्मा सर्व प्रकार के विभावों को त्याग कर अपने निष्कम्प चैतन्यस्वरूप में स्थिर होता है तब प्रात्मा के प्रयोजन की सिद्धि होती है और वह कृतकृत्य होता है । यहाँ कारण कार्य का ज्ञान कराते हुए प्राचार्य लिखते हैं कि जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल स्कंध स्वयमेव ज्ञानाबरणादि कर्मरूप परिणमित होते हैं और इसी प्रकार ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव स्वयं ही रागादि भाव रूप परिणमित होता होता है। न जीव के परिणाम पुद्गलकर्मों के परिणमन कर्ता हैं और न ही पुदगलकम जीवपरिणाम के कर्ता। इस प्रकार सहज कारण-कार्य या निमित्त-नैमित्तिक संबंध बनता है । ऐसा सहज कारण-कार्य का नियम न मानकर अज्ञानी जीव रागादि भावों तथा शरीरादि को एक दूसरे का कर्ता मानते हैं । उन्हें संयुक्त न होने पर भी संयक्त रूप से मानते हैं, यही अज्ञान उनके संसार परिभ्रमण का बीज है।' इसके बाद विपरीत श्रद्धान का नाश, निजात्मा का यथार्थज्ञान तथा निजस्वरूप की स्थिरता को ही पुरुषार्थसिद्धि का उपाय गया है। मुनियों की अलौकिक वृत्ति नथा मनिधर्म का उपदेश पहले न करके, गहस्थ धर्म के उपदेशदाता को दण्डनीय बताया है जिसका कारण उपदेशदाता द्वारा अक्रम (क्रमभंग) कथन करने से योग्य पात्र का ठगाया जाना है। इस प्रकार पीठिका की प्रतिपाद्य वस्तु समाप्त होती है । सम्यग्दर्शन अधिकार - इस अधिकार में श्रावकधर्म के साधनार्थ ग्रहस्थ को भी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का यथाशक्ति सेवन करने का उपदेश है । १. पुरुषार्थ सिद्धः युपाय, पद्य क्रमांक ५, ६, ७, ८ २. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय, पद्य क्रमांक ६, १०, ११ ३. वहीं, पद्य क्रमांक १२, १३, १४४. दही, पद्य प्रमांक १५ से १६ तक।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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