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1 आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्त. त्य
का प्रतिपादन है, जबकि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में केवल सम्यग्ज्ञान का स्वरूप एवं प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग का लक्षण दर्शाया गया है । ११ प्रतिमाओं का प्रकरण पुरुषार्थसिद्धयुपाय में वर्णित नहीं है, वहीं रत्नकरण्ड श्रावकाचार में संक्षेप में उल्लिखित है । शेप प्रकरण पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में भी वे ही हैं जो रत्नकरण्ड श्रावकाचार में उपलब्ध हैं । पुरुषार्थसिद्ध युवा में वर्णित समस्त विषय वस्तु को निम्नलिखित ६ विभागों में विभक्त किया गया है -
१. ग्रन्थपीठिका ( श्लोक १ से १६ तक )
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२. सम्यग्दर्शन अधिकार ( श्लोक २० से ३० तक ) सम्यग्दर्शन अधिकार (श्लोक ३१ से ३६ तक ) सम्यक् चारित्र अधिकार (श्लोक ३७ से १७४ तक ) सल्लेखना अधिकार ( इलोक १७५ से १६६ तक ) सकलचारित्र अधिकार (श्लोक १६७ से २२६ तक )
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६.
ग्रन्थपीठिका
इसमें प्रथम तो मंगलाचरण के रूप में इष्टदेव को स्मरण किया है । वहाँ गुणप्रधान स्मरण है व्यक्तिप्रधान नहीं । इष्टदेव को परंज्योति श्रर्थात् केवलज्ञानस्वरूप कहा तथा उसे दर्पण के समान समस्त पदार्थो को झलकाने वाला कहा। तत्पश्चात् परमागम का प्राणस्वरूप अनेकांत को समस्त विरोधों का शमन करने वाला होने से नमस्कार किया है । आगे लेखक ने त्रिलोक संबंधी पदार्थों को प्रकाशित करने वाले एकमात्र नेत्रस्वरूप परमागम को भलीभांति जानकर, विद्वानों के लिए पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ की रचना करने की प्रतिज्ञा की है । साथ ही निश्चयव्यवहार का रहस्यज्ञ वक्ता ही शिष्यों का दुर्निवार अज्ञानांधकार नष्ट कर जगत् में घर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने वाला होता है, यह घोषित किया है ।" तत्पश्चात् निश्चय को भूतार्थ तथा व्यवहार को अभूतार्थ बतलाते हुए, अधिकांश जगज्जन भूतार्थज्ञान अर्थात् वस्तुस्वरूप के यथार्थ ज्ञान से रहित है, यह स्पष्ट किया । यद्यपि व्यवहार नय प्रभूतार्थ असत्यार्थं कथन करने वाला है, वस्तु का असली स्वरूप नहीं बतलाता, तथापि अज्ञानीजीवों को समझाने के लिए बाचार्य व्यवहारनय का भी उपदेश
१. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पां१, २, ३, ४
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