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कृतियाँ ]
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इस तरह कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय की टोकानों से पुरुषार्थसिद्ध युपाय की रचना के आधार स्रोत प्रस्तुत किये गये हैं। यहां रत्नकरण्ड श्रावकार का भी एक प्रमाण अवलोकनीय है । समंतभद्राचार्य ने चारित्र के यथार्थ स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए लिखा है कि दर्शनमोह रूप अंधकार के दूर होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से सम्यग्ज्ञान की भी उपलब्धि हुई हो - ऐसा साधु राग-द्वेष के नाश (अभाव) करने के लिए सम्यक्चारित्र को अंगीकार करता है । इसी कथन के आधार पर आचार्य अमृतचन्द्र ने भी सम्यक्चारित्र का स्वरूप इसी प्रकार निरूपित किया है । यहां उपरोक्त दोनों प्राचार्यों के मूलशब्दों का अवलोकन कराया जाता है।
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मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः ।
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रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥ ( समंतभद्राचार्य) २ विगलितदर्शनमोहैः समञ्जसज्ञानविदिततत्वार्थः । नित्यमपि निःप्रकम्पैः सम्यक्चारित्रमालम्व्यम् । (अमृतचन्द्राचार्य) '
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विषय वस्तु -
"पुरुषार्थसिद्धयुपाय" की प्रतिनाद्य विषयवस्तु अधिकांश रत्नकरण्ड श्रावकाचार में वर्णित प्रकरणानुसार प्रस्तुत की गई है । अन्तर सिर्फ इतना है कि श्रमृतचन्द्र ने किसी प्रकरण को विशेष स्पष्ट किया है किसी को कम । उदाहरण के लिए अहिंसा व्रत में अहिंसा का स्वरूप निरूपण जितना विशद् सूक्ष्म एवं मौलिक रूप से पुरुषार्थसिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने किया है, वैसे अनूठा वर्णन श्रावकाचार ग्रन्थों की समग्र परम्परा में कहीं भी किसी भी ग्रन्थ में युगपत् तथा स्पष्टरूपेण उल्लिखित नहीं मिलता । दिव्रत, देशव्रत तथा अनर्थदण्डव्रत इन तीनों गुणव्रतों का निरूपण पुरुषार्थसिद्धयुपाय में संक्षेप में (केवल ६ पद्यों द्वारा) किया गया है, जबकि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इन्हीं का वर्णन कुछ विस्तृत रूप में ( २४ पद्यों द्वारा ) हुआ है । सम्यग्ज्ञान अधिकार में पुरुषार्थसिद्धयुपाय में प्रमाण-नयों का स्वरूप, सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान में कार्यकारण भाव का नियम, सम्यग्ज्ञान का स्वरूप तथा इसके अंगों
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२. रत्नकरण्ड श्रावकाचार पद्य नं. ४७
३. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पच नं. ३७