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________________ २२२ । । प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृ त्व के ज्ञाता गुरु ही जगत् में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं।' उक्त कथन का आधार पंचास्तिकाय ग्रन्थ की टोका का वह अशोल्लेख है, जिसमें कहा गया है कि इस प्रकार दोनों नयों के आधीन परमेश्वर जिनेन्द्र के धर्मतीर्थ की प्रवर्तना होती है ।२ निश्चय-व्यवहार सम्बन्धी प्रारम्भिक निरूपण भी समयसार की आत्मख्याति टीका के आधार पर किया गया है । व्यवहार निश्चय को भलीभांति जानकर जो जीव उनके पक्ष मे रहित अर्थात् मध्यस्थ होता है, वह्नो शिष्य जिनेन्द्र के उपदेश के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता है। इसी आशय को उन्होंने आत्मख्याति टीका के एक कलश में पहले ही अभिध्यक्त करते हुये लिखा है कि जो जीव नयपक्षपात से मुक्त होकर, विकल्पसमूह से हटकर, शांतचित्त होकर, हमेशा अपने निजस्वरूप में गुप्त (लीन) होते हैं, वे ही साक्षात् आनंद रूप अमृत को पीते हैं । उपरोक्त अर्थवाची तथा साम्यदर्शी उभय श्लोकों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध युपाय की रचना का आधार स्रोत अपनी स्वोत्रज्ञ' टीकायें बनाई है। यहाँ हम एक उदाहरण प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका का भी प्रस्तुत करते हैं, जिसमें लिखा है कि कर्म रूप परिणमित होने की शक्ति वाले पुद्गल स्कंध, समान क्षेत्रावगाही जीव के परिणाम मात्र का - बहिरंगसाधनमात्र का आश्रय लेकर, जीव उन (पुद्गलस्कंधों) को परिणमाने वाला नहीं होने पर भी, स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं । टीका के मूल शब्द इस प्रकार हैं - यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढ़ जीवपरिणाममात्रं बहिरंग साधनमाथित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्रपरिणमन शक्तियोगिनः पुद्गल. स्कंधाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति ।" इस टीका का सार पुस्पार्थसिद्ध यपाय में इस प्रकार समायोजित किया है - जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।' १. पुरुषार्थ सिद्ध पाय, पद्य क्रमांक ४ २. 'प्रत एवोभयनयापत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तना इति ।" पंचास्ति काय गाथा १५६ की टीका, ३. व्यवहार निश्चयो यः प्रबुध्यतत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ||पुरुषार्थसिबू युपाय ४. समयसार कलश, पद्य नम्बर ६९५. प्रवचनसार गाथा १६६ की टीका १. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय, पद्म नं. १२
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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