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[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
करते हुये लिखा है कि रागादि भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है, वह जिनागम का सार है।" उन्होंने प्रायः समस्त प्रकार को हिंसा - पोषक प्रवृत्तियों का सुयुक्तियों द्वारा खण्डन किया है । तथा उपसंहार रूप में लिखा है कि हिस्य (जिसकी हिमा की जाती है), हिंसक ( हिंसा करने वाला कषायवान् जीव), हिंसा ( प्राणघात की क्रिया) तथा हिंसा के फल ( पापसंचय) को यथार्थरूप में जानकर ही वास्तविक रूप में हिंसा का त्याग संभव है । वे यह भी सूचित करते हैं कि अत्यन्त कठिनता से ॥३ पार होने योग्य, अनेक प्रकार संगयुक्त गहन वन में, मार्ग भूले जनों को नय समूह के ज्ञाता गुरु ही शरण होते हैं। जिनेन्द्रदेव द्वारा वर्णित नयरूपी चक्र अत्यंत पंनी धारवाला है, दुःसाध्य है, यह मिथ्याज्ञानी पुरुषों के मस्तक को तुरंत खण्ड-खण्ड कर देता है । अन्य चर्चित विषयों में मद्य, मांस, मधु के शेष तथा त्याग, पांच उदुम्बर, फलों के दोष तथा उनका त्याग, सत्यव्रत के भेद व स्वरूप, अचौर्यव्रत के अंतर्गत कुशील का स्वरूप एवं त्याग का उपदेश गरिग्रह का स्वरूप व त्याग का उपदेश, रात्रि भोजन में हिंसा तथा उसके त्याग का विधान, दिग्वत, देवव्रत, अनर्थदण्डव्रत, इन तीनों गुणव्रतों का स्वरूप, सामायिक प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण तथा वैयावृत्त इन चार शिक्षाव्रतों का स्वरूप, नवधाभक्ति, दातार के गुण, दान तथा पात्र विचार इत्यादि विषयों पर इस विभाग में विशद् प्रकाश डाला गया है ।"
सल्लेखना अधिकार
इसमें मल्लेखना को धर्मरूप घन को परलोक में साथ ले जाने में समर्थ बतलाया है । मरण के समय शास्त्रोक्त विधि से सल्लेखना धारण करना कर्त्तव्य है । सल्लेखना को श्रात्मघात मानने वालों की मान्यता का निरसन करते हुये लिखा है कि रागादिभावों के अभाव के कारण सल्लेखना आत्मघात नहीं है । वास्तव में क्रोधादि कषायों से घिरा हुआ मनुष्य ही आत्मवाती है । सल्लेखना को अहिंसास्वरूप बतलाते हुये सम्यकत्व, व्रत तथा शीलवतों के अतिचारों का निरूपण किया गया है
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१. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य क्रमांक ४४ २. ३. वहीं, पद्य नं. ६०
५. वही, पद्य नं. १६९ से १७४ क ७ पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य १२१ से १६६ तक |
वही, पद्य क्रमाक ४५ से ५७ तक ४. नही पद्य ५.८,५६
६. वही, पच १७५ से १७७ तक