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कृतियाँ ]
[ २२६ सकलचारित्र अधिकार -
यह इस ग्रन्थ का छठयां एवं अंतिम विभाग है जिसमें मुनियों के सकल चारित्र का वर्णन है। इनमें अनशन, अवमोदय, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन तथा कायक्लेश ये छह बायतप तथा विनय, वैयावृत्य, प्रायश्चित, व्युत्सर्ग, स्वाध्याय तथा ध्यान ये छह अंतरंग तप - इन बारह तपों का निरूपण हैं । समता, वंदना, स्तव (स्तुति), प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक, तीन गुप्ति मन, वचन, काय), पांच समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण, प्रतिष्ठापना), दशधर्म (उत्तमक्षमा, मार्दैव, आजव, शौच, सत्य, संयम तप, त्याग, आकिंचन्य, एवं ब्रह्मचर्य) बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषजय इत्यादि का वर्णन किया गया है। यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि रत्नत्रय से कभी बन्ध नहीं होता। वह तो एकमात्र मोक्ष का ही कारण (उपाय) है। यहाँ बन्ध को नियम का निर्देश किया गया है कि जितने अंश में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र हैं, उतने अंश से बन्ध नहीं होता और जितने अंश में राग मौजुद है, उतने रागांश से बन्ध होता है। योग और कषाय बन्ध के कारण हैं परन्तु रत्नत्रय तो न योगरूप है और न कषाय रूप, वह तो शुद्धस्वभावरूप हो है । शुद्धात्मा का निश्चय, सम्यग्दर्शन, शुद्धात्मा का ज्ञान, सम्यग्ज्ञान तथा शुद्धात्मा में स्थिरता, सम्यक्चारित्र है। इन तीनों से बन्ध कदापि नहीं होता, ये तो निर्वाण के ही कारण हैं । आगम में सम्यक्त्व तथा चारित्र से तीर्थंकर प्रकृति, आहारकशरीर तथा अवेयकादि सम्बन्धी देवायु का बन्ध होना लिखा है वह व्यवहार नय का उपचारित कथन मात्र है । नय के ज्ञाताओं को ऐसे कथनों का रहस्य या अभिप्राय ज्ञात हो जाने से ऐसे कथन दोषाधायक नहीं होते। यहाँ मर्म की बात यह है कि योग व कषाय से होने वाला तीर्थंकर आदि प्रकृतियों का बन्ध सम्यक्त्व तथा चारित्र के सदभाव में ही होता है, अभाव में नहीं, परन्तु बन्ध के कारण सम्यक्त्व व चारित्र नहीं है। रत्नत्रयधारी मुनियों को देवाय आदि प्रकृतियों का बन्ध क्यों होता है ! इस शंका का समाधान करते हुए स्पष्ट घोषणा की है कि
१. पुरुषार्थमिद युपात्र, पद्य १६७ से २१० तक २. वही, 'पद्य २११ से २१४ नक ३. वही, पच २१५ से २१८ तक ।